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समालोचना-समुच्चय


कहीं कहीं अष्टाध्यायी पढ़ाने की भी परिपाटी है। यदि इन ग्रन्थों को पढ़ाते समय अध्यापक उसी प्रकरण को भट्टिकाव्य से भी पढ़ाता जाय और प्रत्यक्ष उदाहरणों के द्वारा छात्र को उस विषय का बोध कराता जाय तो व्याकरण-शास्त्र की रूक्षता कम हो जाय। इससे व्याकरण के साथ ही साथ काव्य-साहित्य में भी गति होती जाय और शुष्कता के कारण व्याकरणानुशीलन से छात्र को विरक्ति भी न हो।

भट्टिकाव्य छोटा नही, बड़ा है। उसमें २२ सर्ग हैं। पहले के पाँच सर्गों में रामजन्म से लेकर सीताहरण तक की कथा है। उसे इस काव्य का लक्ष्यरूप समझिए। इन सर्गों में व्याकरण के लक्षणरूप प्रकीर्णक विषय भी, साथ ही साथ, आ गये हैं। इसीसे इतने अंश का नाम प्रकीर्णकाण्ड है। सुग्रीव के राज्याभिषेक-वर्णन से हनूमान् के लङ्का-गमन तक की कथा छठे से नवें सर्ग तक है। इनमें कारक, कृदन्त, तद्धित और तिङन्त के कुछ प्रत्ययों के विषय, अधिकार रूप में, दिये गये हैं। अतएव इस अंश का नाम अधिकारकाण्ड है। दसवे से तेरहवें सर्गपर्य्यन्त सेतुबन्ध तक की कथा के अन्तर्गत काव्य-सम्बन्धी अलंकार, गुण और भाषावैचिव्य आदि दिखाया गया है। इन सर्गों के पाठ से हृदय-प्रसादन होता है। इस कारण इन सबका नाम कवि ने प्रसन्न-काण्ड रक्खा है। चौदहवें सर्ग से अन्तिम सर्ग तक युद्ध वर्णन है। उनका सामुदायिक नाम है―तिङन्त-काण्ड। उनमें क्रियाओं के रूप अर्थात् संस्कृत-व्याकरण के सभी 'लकारों' के उदाहरण हैं। सो आप देखिए, इस काव्य में व्याकरण के प्रायः सभी विषयों का समावेश, लक्षणरूप में, बड़ी ही ख़ुबी के साथ किया गया है। व्याकरण और काव्य, दोनों का एकीकरण, एक ही साथ कर सकने की शक्ति रखनेवाले महापण्डित भट्टि की जितनी प्रशंसा की जाय कम है।