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भट्टिकाव्य


ज्ञान के साथ ही साथ व्याकरण-ज्ञान भी होता जाय। यह भट्टि- काव्य उनके उसी निश्चय और परिश्रम का फल है। इसमें भट्टि-महात्मा कहाँ तक कृत-कार्य हुए हैं, इसका प्रमाण समस्त, संस्कृतज्ञ जन-समुदाय है। बहुत सम्भव है, इस काव्य की बदौलत भट्टि का पुत्र अच्छा वैयाकरण हो गया हो।

इस ग्रन्थ में काव्यत्व की कमी नहीं। पर वह विषय कुछ गौण है। इसका मुख्य विषय व्याकरण को शिक्षा देना है। अतएव इसमें व्याकरण की प्रक्रियाओं और पदादि के लक्षण और रूप, प्रत्यक्ष उदाहरणों के द्वारा, घटित किये गये हैं। काव्य-सुलभ अानन्द के साथ ही साथ व्याकरण के विशिष्ट विशिष्ट अंशों का बोध कराना ही इसका प्रधान उद्देश है। बंच्चों को कष्ट न हो और विषय-विशेष या शास्त्र विशेष में उनका प्रवेश हो जाय, यही तत्व आधुनिक शिक्षा शास्त्र के आचार्यो का भी है। उसी की रक्षा इस काव्य में की गई है। व्याकरण के सदृश शुष्क शास्त्र को इतनी सरस और सरल रीति से, प्रत्यक्ष उदाहरणों के द्वारा, काव्य में घटित कर देना सहज काम नहीं। इसी कष्ट-साध्य काम को महापण्डित भट्टि ने सिद्ध कर दिखाया है। इसी से उन्हें विज्ञजनों ने महापण्डित ही की नहीं, महाकवि की भी उपाधि से अलंकृत किया है। उनका यह काव्य उस देश की व्याकरण-विषयक ऊँची परीक्षाओं के लिए भी पाठ्य-ग्रंथ नियत है। कालेजों में भी पहले यह पढ़ाया जाता था; पर इस समय की ख़बर हमें नहीं। यह इस काव्य की उपादेयता का पक्का प्रमाण है।

व्याकरण के जो ग्रन्थ छात्रों को पढ़ाये जाते हैं उनमें से लघुकौमुदी, सिद्धान्तकौमुदी, सारस्वत और चन्द्रिका मुख्य हैं।