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समालोचना-समुच्चय

इस श्लोक में "प्रगृह्यपदवत्साध्वीं" यह सीता का विशेषण है। इसमें कवि ने अद्भुत कर्तब दिखाया है। व्याकरण का नियम है कि प्रगृह्य-पद में अन्य-पद-संयोग होने से सन्धि-जन्य विकार नहीं होता। कवि का कहना है कि जिस प्रकार ऐसे संयोग से सन्धि-विकार नहीं होता उसी प्रकार रावणदि अन्य पुरुषों का सान्निध्य होने पर सीता जी के भी मन में कुछ भी विकार नहीं हुआ।

उषःकाल समीप है। क्षोणपुण्य पुरुष की तरह कलानिधि चन्द्रमा का अस्तकाल उपस्थित है। ऐसे समय में मनुष्यों के शत्रु प्रसन्न और मित्र दुखी होते हैं। यही दशा, प्रातःकाल, सूर्य और चन्द्रमा के शत्रु-मित्रों की भी होती है। इसका उल्लेख भट्टि ने एक बड़े ही हृदयहारी और सरस श्लोक में किया है। यथा-

अथास्तमासेदुषि मन्दकान्तौ
पुण्यक्षयेणेव निधौ कलानाम्।
समाललम्बे रिपुमित्रकल्पै:
पद्मै: प्रहासः कुमुदैर्विषादः॥

यह पद्य माधुर्य और प्रसाद-गुण का बहुत ही अच्छा नमूना है।

कविवर भट्टि ने तेरहवे सर्ग में भाषा-वैचिञ्य का भी प्रदर्शन किया है। उसमें उसने संस्कृत और प्राकृत के मिश्रण की बानगी दिखाकर मानों इस बात का सबूत दिया है कि जिस तरह संस्कृत-भाषा में मेरी गति अबाध है उसी तरह प्राकृत-भाषा में भी है।

इस कवि ने दूसरे सर्ग में शरद्ऋतु का बड़ा विशद वर्णन किया है। उसके दो श्लोक नीचे उद्धृत हैं―