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पृष्ठ:समालोचना समुच्चय.djvu/५१

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भट्टिकाव्य

प्रभातवाताहतिकम्पिताकृतिः
कुमुद्वतीरेणुपिशङ्गविग्रहम्।
निरास भृङ्गं कुपितेव पद्मिनी
न मानिनी संसहतेऽन्यसङ्गमम्॥

खिली हुई कमलिनी पर प्रातःकाल भौंरा आकर बैठ गया। परन्तु वायु के झोंके से कमलिनी जो ज़ोर से हिली तो उसे उड़ जाना पड़ा। इस पर कवि की उक्ति है कि वह भौंरा कुमुद्वती का रस लेकर कमलिनी के पास आया था, क्योंकि उसके बदन पर कुमुदिनी का पीला पीला पराग लगा हुआ था। यह देख कर क्रोध से कमलिनी काँप उठी और उस भौंरे को अपने पास से निकाल बाहर किया। उसका यह काम बहुत मुनासिब हुआ, क्योंकि मानिनी स्त्री अपने प्रियतम का अन्य-संसर्ग कभी बर्दाश्त नहीं कर सकती।

इस काव्य के शरद्वर्णन का एक श्लोक साहित्यदर्पणकार ने, एकावली-अलङ्कार के उदाहरण में, उद्धृत किया है। यह श्लोक बहुत ही श्रुतिसुखद और सुन्दर है। देखिए―

न तज्जलं यन्न सुचारुपङ्कजं
न पङ्कजं तद्यदलीनषट्पदम्।
न षट्पदोऽसौ न जुगुञ्ज यःकलं
न गुञ्जितं तन्न जहार यन्मनः॥

मखरक्षा के लिए रामचन्द्र जी विश्वामित्र के साथ जा रहे थे। मार्ग में कहीं पर उन्होंने गोप-नारियों को दधिमन्थन करते देखा। इस दृश्य का जो वर्णन भट्टि-कवि ने, एक श्लोक में किया है उसमें उन्होंने इसका चित्र सा खींच दिया है। यथा―