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पृष्ठ:समालोचना समुच्चय.djvu/५२

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समालोचना-समुच्चय

विवृत्तपार्श्व रुचिराङ्गहारं
समुद्वच्चारुनितम्बरम्यम्।
आमन्द्रमन्यध्वनिदत्ततालं
गोपाङ्गनानृत्यमनन्दयत्तम्॥

मारीच से मुठभेड़ होने पर रामचन्द्र ने उसको जीवन-वृत्ति पर उसे इस प्रकार फटकार बताई―

आत्मंभरिस्त्वं पिशितैर्नराणं
फतेगृहीन हंसि वनस्पतीनाम्।
शौवस्तिकत्वं विभवा न येषां
ब्रजन्ति तेषां दयसे न कस्मात्?

रे दुष्ट! तू मनुष्यों के मांस से पेट पालता है; वनस्पतियों के फल-फूल खाकर जीवन-निर्वाह करने वालों की हत्या करता है; जिन्हें आज भोजन किसी तरह मिल गया तो कल फाक़े की नौबत है उन पर भी दया नहीं करता! तुझे धिक्कार है!

प्राचीन आर्य्य इन वन्य मनुष्यों के साथ कौन बड़ा अच्छा सलूक करते थे। वे उनकी जगह-ज़मीन जबरदस्ती छीन लेते थे; उन्हें अपना दास बना कर रखते थे; उन्हें वेदविहित धर्मानुष्ठान का अधिकारी न समझते थे। इस दशा में मारीच और उसके सजातीय क्या आर्य्य-ऋषियों की पूजा करते? इसी से रामचन्द्र की फटकार सुन कर मारीच जल उठा। वह बोला―

अद्मो द्विजान् देवयजीन् निहन्मः
कुर्म्म: पुरं प्रेतनराधिवासम्।
धर्म्मो ह्ययं दाशरथे निजो नो
नैवाध्यकारिष्महिं वेदवृत्ते॥