रखनेवाले उदाहरण मौजूद हैं। पर उन सब की विवृति जान बूझ कर नहीं की गई। क्योंकि संस्कृत-व्याकरण न जाननेवाले पाठकों को वह रुचिकर न होती। ऊपर कई जगह जो व्याकरण-विषयक प्रयोगों का उल्लेख हो चुका वही काफी समझा गया।
भट्टि ने कहीं कहीं पर बड़े अच्छे नीति-नियम भी निर्दिष्ट किये हैं। वानर जब सीता को ढूँँढ़ते ढूँढ़ते थक गये और भूख के मारे रोने-चिल्लाने लगे तब सम्पाति ने उन्हें खूब डाँट बताई। उसने कहा-रोते बैठने से क्या होगा? जिस बात की खोज हो उसे जान लेने की फिक्र में मर मिटना चाहिए; शत्रुओं का अपकार करने के लिए छिपकर, चोर की तरह, कोई काम न करना चाहिए; खुल कर कार्य्य-सिद्धि के लिए प्रयत्न करना चाहिए। तभी सफलता और तभी सम्पत्ति को प्राप्ति हो सकती है―
नाविविदिषिमभ्येति सम्पद् रुरुदिपं नरम्।
किं मुमुपिषुवद् यात द्विषो नापचिकीर्षया॥
भट्टिकाव्य में कुछ विद्वानों ने दोपोद्भावनायें भी की हैं। भट्टि ने एक जगह जो लिखा है―"हा पितः क्वासि हे सुभ्र"― उसमें वैयाकरण एक भूल बताते हैं। उसके सम्बन्ध में भट्टा जी दीक्षित ने लिखा है―“प्रमाद पवायं बहवः" इत्यादि।
पाँचवें सर्ग के चौदहवें श्लोक में भट्टि ने सीता जी को दूर्वादलश्याम बताया है-" दूर्वाकाण्डमिव श्यामा न्यग्रोधपरि-मण्डला"। पर अन्य लोग उन्हें तप्त-सुवर्णकान्ति वाली अर्थात् गोर-वर्ण समझते हैं। इसी तरह के और भी कई आक्षेप कवि-वर भट्टि के इस काव्य के विषय में किये जाते हैं। परन्तु, इस लेख में, उन सब के उल्लेख और विवेचन की आवश्यकता नहीं।
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