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समालोचना-समुच्चय


कुवें, मन्दिर, औषधालय, पान्थशालायें आदि इसने कितनी बनवाई, इसकी तो गिनती ही नहीं।

वस्तुपाल के इस महाकाव्य में १६ सर्ग हैं। उनमें कृष्णार्जुन की मैत्री, गिरनार-पर्वत पर उनका भ्रमण और अर्जुन द्वारा सुभद्रा का हरण वर्णन किया गया है। मुख्य कथा इतनी ही है। चन्द्रादय, सुरापान, पुष्पावचय आदि वर्णनों का विस्तार इस लिए किया गया है जिससे यह महाकाव्य के लक्षणों से समन्वित हो जाय। वस्तु-पाल का समय सन् ईसवी के तेरहवें शतक का उत्तरार्ध है। उसी समय इस काव्य का निर्माण हुआ है।

वस्तुपाल की कविता बड़ी हृदय-हारिणी है। उसके पद्यों का अवतरण उसके बाद के अनेक कवियों ने अपने अपने ग्रन्थों में; किया है। कवियों के लिए तो वह कल्पवृक्ष ही था। सोमेश्वर, हरिहर, दामोदर, नानाक, जयदेव, मदन आदि कवि उसकी कृपा से मालामाल हो गये । इन लोगों ने उसे लघु भोजराज की पदवी दी थी। पर वस्तुपाल अपने को सरस्वती का धर्म्मपुत्र समझता था। उसने इस महाकाव्य में स्वयं ही लिखा है―

नरनारायणानन्दो नाम कन्दो मुदामिदम्।
तेने तेन महाकाव्यं वाग्देवीधर्म्मसूनना॥

इसी के आगे, पुस्तकान्त में, उसने अपनी अल्पज्ञता और नम्रता दिखाते हुए यह भी लिखा है कि इस काव्य का निर्म्माण मैंने "सपदि" अर्थात् बड़ी शीघ्रता से किया है। अतएव अवलोकन करते समय पण्डितों को कृपा पूर्वक इसके दोष दूर कर देना चाहिए, यथा―

उद्भास्वद्विश्वविद्यालयमयमनसः कोविदेन्द्रा वितन्द्रा
मन्त्री बद्धाञ्जलिर्वो विनयनतशिरा याचते वस्तुपालः।