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गायकवाड़ की प्राच्य-पुस्तक-माला


एकस्त्वं भुवनोपकारक इति श्रुत्वा सतां जल्पितं
लज्जानम्रशिरा धरातलमिदं यद्वीक्षसे वेद्मि तत्।
वाग्देवीवदनारविन्दतिलक श्रीवस्तुपाल ध्रु वं
पातालाद्वलिमुद्दिधीर्षुरसकृन्मार्गं भवान् मार्गति॥

सज्जनों के मुख से यह सुनकर कि आप अकेले इस महीतल के नहीं, किन्तु सारे भुवन के उपकारकर्ता हैं, आपने लज्जित होकर नीचे ज़मीन पर जो अपनी आँखें गाड़ सी दी हैं, इसका कारण मैं समझ गया। बलवत् पाताल को निकाल दिये गये बलि को उद्धार करने के लिए आप मार्ग ढूँढ़ रहे हैं। आप यह देख रहे हैं कि ज़मीन को किस जगह फाड़ कर पाताल चला जाऊँँ और वहाँ से बेचारे बलि को निकाल लाऊँ।

यह सुन कर वस्तुपाल ने सोने की जीभ बनवा कर उसे दान कर दी।

एक बार देवपत्तन नामक नगर से कुछ पुजारी भट्ट आये। उनसे वस्तुपाल ने पूछा―कहिए शिव जी की पूजा-अर्चा बराबर होती है न? इस पर उन लोगों ने कहा―

नादत्ते भसितं सितं सचिव ते कर्पूर-पूरं स्मरन्
कौपीने न च तुष्यति प्रभुरसौ शंसन्दुकूलानि ते।
दिग्धोदुग्ध भरैर्जलेषु विमुखः श्रीवस्तुपाल त्वया
कर्पूरागुरुपूरितः पशुपतिर्नो गुग्गुलं जिघ्रति॥

मन्त्रिमहाराज हम लोगों के पशुपति जी का हाल कुछ न पूछिए। हमारी की हुई पूजा वे ग्रहण ही नहीं करते। आपके कर्पूरपूर की याद करके वै सफेद भस्म का खौर लगाने ही नहीं