देते। वे तो आपके बहुमूल्य दुकूलों की प्रशंसा किया करते हैं। लँगोटी से अब उन्हें तृप्ति कहाँ? जल से उनकी तुष्टि नहीं; वे आपके दुग्ध-सिंचन ही का स्मरण किया करते हैं। आपने उन्हें कर्पूर और अगरू की ऐसी चाट लगा दी है कि अब वे गूगल सूँघते ही नहीं। पूजा हो तो कैसे हो?
इन लोगों को मन्त्री ने दस हज़ार रुपये या दिरम दिये।
एक बार अमरचन्द्र मुनि के दर्शनार्थ वस्तुपाल गये। मुनि जी काव्य-चर्चा कर रहे थे। दरवाजे़ पर पहुँचते ही मन्त्री ने मुनि महाराज को यह श्लोकार्द्ध कहते सुना—
असारे खलु संसारे सारं सारङ्गलोचना।
यह सुन कर वस्तुपाल को आश्चर्य और खेद हुआ। उन्होंने मन में कहा―यह मुनि होकर स्त्रियों की चर्चा कर रहा है। मन्त्री जी भीतर गये तो मुनि जी का वन्दन किये बिना ही बैठ गये। मन्त्री महाशय इसका कारण समझ गये। अतएव तत्काल ही उन्होंने पूर्वक्ति श्लोकार्द्ध की पूर्ति इस प्रकार कर दी।
यत्कुक्षिप्रभवा एते वस्तुपाल भवादृशाः।
यह सुन कर वस्तुपाल का क्षोभ जाता रहा और उन्होंने श्रद्धापूर्वक अमरचन्द्र मुनि का वन्दन किया।
ऐसी ही और भी अनेक सूक्तियाँ और वस्तुपाल की प्रशंसा से पूर्ण कवितायें पुस्तकान्त के परिशिष्टों में हैं।
मूल्य इस पुस्तक का सवा रुपया है।
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