पृष्ठ:समालोचना समुच्चय.djvu/७३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६७
पृथिवी-प्रदक्षिणा

पृथिवी-प्रदक्षिणा

[ ६ ]

कूप-मणडूक भारत, तुम कब तक अन्धकार में पड़े रहोगे। प्रकाश में आने के लिए तुम्हारे हृदय में क्या कभी सदिच्छा ही नहीं जागृत होती? पक्षहीन पक्षी की तरह क्यों तुम्हें अपने पींजड़े से बाहर निकलने का साहस नहीं होता? क्या तुम्हें अपने पुराने दिनों की कभी याद नहीं आती? किन दिनों की, जानते हो? उन दिनों की जब तुम्हारे जहाज़ फ़ारिस की खाड़ी और अरब के सागर में चलते थे और जब तुम्हारे व्यवसाय-निपुण निवासियों ने, सहस्रों की संख्या में, मिस्र, ईरान और यूनान के बड़े बड़े नगरों में कोठियाँ खोल रक्खी थीं। उन दिनों की जब ब्रह्मदेश, श्याम, अनाम और कम्बोडिया ही में नहीं, मलय-प्रायद्वीप के जावा और बाली आदि टापुओं तक में, तुम्हारा गमनागमन था और जब तुमने उन दूरवर्ती देशों और द्वीपों में भी अपने उपनिवेश स्थापित किये थे। उन दिनों को जब तुम्हारे बौद्ध-भिनु और अन्य विद्वज्जन गान्धार, तुर्किस्तान ओर चीन तक के निवासियों को अपने धर्म्म, अपनी विद्या और अपने विज्ञान का दान देने के लिए वहाँ तक पहुँचे थे। उन दिनों की जब खोस्त और यारकन्द के समीपवर्ती अगम्य प्रदेशों में भी तुम्हारे धर्म्माचार्य्यों ने बड़े बड़े मठों, मन्दिरों, स्तूपों और चैत्यों की स्थापना की थी।

धर्म्मध्वजी हो कर भी धर्म्मान्ध भारत, क्या समुद्रयात्रा करने से तब भी तुम्हारी जाति जाती थी? अन्यधर्म्मावलम्बियों के संसर्ग से क्या तब भी तुम्हें कृच्छ-चान्द्रायण करना पड़ता था? हुणों, शकों, चीनियों और गान्धार, तुर्किस्तान, यूनान आदि देशों के निवासियों को छू जानें पर क्या तब भी तुम सचैल स्नान करते