पुस्तक का उपोद्घात काशी के विख्यात विद्वान् बाबू भगवानदास का लिखा हुआ है। वह है तो ८ पृष्ठ व्यापी, परन्तु उसका अधिकांश ऐसी ही बातों से पूर्ण है जिनका सम्बन्ध पुस्तक से कम, भूमिका-लेखक की विद्वत्ता ही से अधिक है। हाँ, अन्तिम पृष्ठ पर बाबू साहब ने देश-भ्रमण से होने वाली ज्ञानवृद्धि और “पृथिवी-प्रदक्षिणा" के गौरव का अवश्य गान किया है।
बाबू शिवप्रसाद गुप्त ने, पुस्तकारम्भ में, अपना संक्षिप्त जीवन-चरित भी दिया है। उसकी भाषा बड़ी मीठी है। उससे उनके स्वभाव की सरलता, आत्मा की उच्चता और हृदय की मनस्विता, बहुत अच्छी तरह, प्रकट होती है। जिन्हें लोग दोष समझते हैं उनका भी उल्लेख करने में आपने ज़रा भी सङ्कोच नहीं किया। आपकी सत्य-प्रीति सर्वथा श्लाघनीय है। आपके इस संक्षिप्त चरित को पढ़ने से जहाँ आपके विचारौदार्य्य और देश-प्रेम आदि गुणों के परिचय से मन मुग्ध हो जाता है, वहाँ आपके साथ सिङ्गापुर में किये गये अमानुषिक अत्याचारों का उल्लेख पढ़ कर हृदय में उत्कट वेदना भी उत्पन्न हुए बिना नहीं रहती। हाय, ऐसे सर्वथा निर्दोष सज्जन के साथ इतना घृणित व्यवहार! भगवान् अत्याचरियों को क्षमा का दान देने की दया दिखावे। इससे अधिक कहने के लिए अपना दुर्भाग्य अनुमति नहीं देता।
पुस्तक चार खण्डों में विभक्त है। पहले में मिस्र के, दूसरे में अमेरिका के तीसरे में जापान के और चौथे में चीन के पर्य्यटन का वर्णन है। गुप्तजी की यह विदेश-यात्रा काशी से, अप्रेल १९१४ में, आरम्भ हुई थी। उसके २१ महीने बाद आप स्वदेश लौटे। अर्थात् यात्रान्त हुए आठ वर्ष हो चुके। अतएव यात्रा का यह वर्णन बहुत देर से निकला है। गुप्तजी ने इसके कारण बताये हैं। अधिक देरी पुस्तक को सामग्री एकत्र करने और उत्कृष्ट छपाई का