बहुत पूँँछ-पाछ के बाद, देवालय के कपाट खोले। इसका कारण आपने यह लिखा है―“मेरे दाढ़ी है और इस समय मैं कोट-बूट-धारी बन्दर बना हुआ था।"
क्यों गुप्त जी, कोट और बूट के साथ आप हैट को भूल गये? विलायत में क्या आपने उसका बायकाट किया था? ऐसा तो न हुआ होगा। फिर जिस वस्तु ने आपके उत्तमाङ्ग की रक्षा ही नहीं की, किन्तु उसकी शोभा भी बढ़ाई उसका विस्मरण करके आपने उस पर जुल्म ज़रूर किया। हैट-कोट आदि से विभूषित आपका रूप-रङ्ग, कल्पना-द्वारा भी, हमारी आँख़ों के सामने नहीं आता। हमें तो आप, आँखें बन्द कर लेने पर भी, सदा चौड़े किनारे की धोती, मोटा कुर्ता और देशी जूता ही पहने हुए देख पड़ते हैं। आपकी इस सादगी से सभी को शिक्षा लेनी चाहिए।
पर्य्यटन को बड़ी महिमा है। उससे बड़े लाभ हैं। भारत के प्राचीन पण्डित भी लिख गये हैं कि देशाटन से मनुष्य बहुदर्शी हो जाता है-“देशाटनं पण्डित-मित्रता च" यह जिस श्लोक का पहला चरण है वह इस बात का प्रमाण है। सौ दो सौ वर्ष पहले देशाटन का जितना महत्त्व था, इस समय उससे वह कई गुना अधिक है। बात यह है कि पूर्व-काल में अनेक विषयों में भारत ही और देशों से अधिक समुन्नत था। अतएव औरों से कुछ सीखने की उसे तादृश आवश्यकता न थी। पर अब अवस्था प्रायः उलटी है। अब तो कितने ही देश ऐसे हैं जो भारत से अनेक विषयों में बहुत बड़े चढ़े हैं। इस दशा में उन देशों में घूमना, उनके कला-कौशल का ज्ञान प्राप्त करना, उनकी राजनैतिक प्रगति के कारणों का पता लगाना, उनके सामाजिक संगठन से परिचित होना और उनकी शिक्षा-दीक्षा के तत्वों का जानना हमारे लिए परम आवश्यक है। बिना तुलना के―बिना मुक़ाबले के―