समाजच्युत हो जाय तो वह बिना किसी विशेष कारण के, यह नहीं कहता फिरता कि मैं अपनी बिरादरी से ख़ारिज हूँ। परन्तु इस पुस्तक के लेखक ने इन सारे निःसार सामाजिक बन्धनों से अपने को मुक्त समझा है। वे जैसे हैं वैसा ही बताना अपना कर्तव्य सा समझते हैं। दुनिया कुछ भी कहे, कुछ परवा नहीं; मुझमें जो बात है या मेरे विचार जैसे हैं उन्हें छिपाना मैं पाप समझता हूँ। उनका असल मतलब यह जान पड़ता है। दूसरे शब्दों में यही बात इस तरह कही जा सकती है कि वे सत्य के
उपासक हैं― सत्य को वे हाथ से नहीं जाने देना चाहते। बात यह कि वे सत्यधन हैं। उनके इस गुण के प्रमाण इस पुस्तक के अनेक स्थलों में पाये जाते हैं। दो चार उदाहरण लीजिए―
(१) विदेश से लौटे हुए एक सज्जन के साथ सम्पर्क रखने के कारण आप काशी के अग्रवाल-समाज से च्युत हैं। इस बात को आपने अपने संक्षिप्त चरित में स्वयं ही लिख दिया है।
(२) आप मूर्तिपूजक नहीं; आर्य्य-समाज के सिद्धान्तों का अनुसरण करनेवाले हैं। इसका भी उल्लेख आपने किया है। परन्तु साथ ही आर्य्य समाज के गुरुकुलों से सम्बन्ध रखनेवाले सज्जनों के शुष्क वाद-विवाद आदि पर आक्षेप भी किये हैं।
(३) वल्लभाचार्य्य सम्प्रदाय के गुरु की दी हुई कण्ठी तोड़ फेंकने की घटना लिखने में भी आपको सङ्कोच नहीं हुआ।
(४) विदेश में अभक्ष्य और अपेय पदार्थों को छोड़ कर अन्य खाद्य पदार्थ, विदेशियों के साथ बैठ कर, खाने का उल्लेख आपने कई जगह किया है।
(५) अदन में आपने सुना कि वहाँ हनूमान् जी का एक मन्दिर है। उसे देखने किंवा दर्शन करने गये, तो पुजारी जी ने,