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पृष्ठ:समालोचना समुच्चय.djvu/८

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समालोचना-समुच्चय

गोपियों के मानस को बलात् अपनी ओर खींच लिया। वे उस लोकोत्तर निनाद को सुनकर मोहित हो गईं।

वंशी की ध्वनि सुनकर गोपियों की अन्य समस्त इन्द्रियाँ कर्णमय हो गईं। अन्य इन्द्रियों के धर्म्म लोप हो गये। अकेली श्रवणेन्द्रिय अक्षुण्ण रही। श्रीकृष्ण के द्वारा बनाई गई वंशी को ध्वनि उससे सुन कर गोपियाँ आकुल हो उठीं। उन्होंने घर के सारे काम छोड़ दिये। शिशुओं को स्तन्यपान कराना और पतियों की शुश्रूषा करना भी वे भूल गईं। वे सहसा घर से निकल पड़ीं और उसी तरफ दौड़ीं जिस तरफ से वह मनो मुग्धकारिणी ध्वनि आ रही थी। आकर उन्होंने देखा कि श्रीकृष्ण जी अपने नटवर-वेश में खड़े वंशी बजा रहे हैं। धीरे धीरे उनके पास एक दो नहीं, सैकड़ों, गोपियाँ एकत्र हो गईं। इतनी आतुर होकर, हड़बड़ी में, वे घर से निकल पड़ी थीं कि उन्होंने अपने वस्त्राभूषण तक ठीक ठीक―जिसे जहाँ पर और जिस तरह पहिनना चाहिए था―नहीं पहना था। उन्हें इस तरह आई देख श्रीकृष्ण को फिर एक दिल्लगी सूझी। आपने वंशी बजाना बन्द कर दिया और बोले―

स्वागतं वो महाभागाः प्रियं किं करवाणि वः।
ब्रजस्यानामयं कञ्चिद् व्रूतागमनकारणम्॥

स्वागत! स्वागत! ख़ूब आईं। कहिये, क्या हुआ है? कुशल तो है? व्रज पर कोई विपत्ति तो नहीं आई? किस लिए रात को यहाँ आगमन हुआ?

ज़रा इन प्रश्नों को तो देखिए। स्वागत-सत्कार के ढङ्ग पर तो विचार कीजिए। आप ही ने तो बुलाया और आप ही आने का कारण पूछ रहें हैं! यह दिल्लगी नहीं तो क्या है? और दिल्लगी भी बड़ी ही निष्करुण। बात यहीं तक रहती तो ग़नीमत थी। कृष्ण ने तो, इसके आगे, गोपियों को कुछ उपदेश भी दिया।