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पृष्ठ:समालोचना समुच्चय.djvu/९

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गोपियों की भगवद्भक्ति


उपदेश क्या दिया, जले पर नमक छिड़का। आपके व्याख्यान का कुछ अंश सुनिए।

रात बड़ी ही भयावनी है। जङ्गल बेहद घना है। हिंस्र जीव इधर उधर घूम रहे हैं। भला यह समय भी क्या स्त्रियों के बाहर निकलने का है? तुम्हारे बाल-बच्चे रोते होंगे। तुम्हारे पति, पुत्र, पिता आदि कुटुम्बी तुम्हें ढूँढ़ते होंगे। राका-शशी की किरणों से रञ्जित कुसुमित-कानन की सैर हो चुकीं। रविनन्दिनी यमुना को तरल तरङ्गों की शोभा तुम देख चुकीं। यदि प्रेम-परवशता के कारण मेरे दर्शनार्थ तुम चली आईं तो तुम्हारी वह दर्शन-पिपासा भी पूर्ण हो गई। हो चुका। बस, अब तुम पधारो; अपने अपने घर लौट जाव; जाकर अपने अपने स्वामियों को शुश्रूषा करो―

दुःशीलो दुर्भगो वृद्धो जड़ो रोग्यधनोऽपि वा।
पतिः स्त्रीभिर्न हातव्यो लोकेप्लुभिरपातकी॥

देखो, अपना पति दुःशील, दुर्भग, वृद्ध, जड़, रोगी और निर्धन ही क्यों न हो, स्त्रियों को उसका त्याग कदापि न करना चाहिए। तुम जिस अभिप्राय से यहाँ आई हो वह अत्यन्त निन्द्य है। उससे तुम्हारे दोनों लोक बिगड़ जायँगे।

श्रीकृष्ण के इस व्याख्यान पर ध्यान दीजिए और फिर उनके उस प्रश्न पर विचार कीजिए। प्रश्न था कि तुम आई क्यों? इस प्रश्न का उत्तर आप स्वयं ही दे रहे हैं। फिर भी आपने प्रश्न करने की ज़रूरत समझी! इसी से हम कहते हैं कि यह सारी दिल्लगी थी। दिल्लगी पर दिल्लगी।

प्रियतम कृष्ण का यह रुख़ देख कर और उनकी यह प्रश्नावली तथा उपदेशमाला सुन कर गोपियों के होश उड़ गये। उन्हें स्वप्न में भी यह ख़याल न हुआ होगा कि उनके साथ इतना कठोर