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समालोचना-समुच्चय

“मैं चाहता हूँ कि भारत के नवयुवक भाई नौकरी को तिलाञ्जलि दें। X X X भिन्न भिन्न देशों में कोठियाँ खोल व्यापार बढ़ावें। इसी बहाने देश-देशान्तर को देखें भी। पहले भी हमारे यहाँ यही होता था। अब भी जीवित देशवाले यही करते हैं और यदि हमें भी जीवित रहने की इच्छा है तो यही करना होगा"। पृष्ठ १८०-८१

जापान पहुँचने पर गुप्त जी ने देखा कि वहाँ जापानी भाषा ही की तूती बोल रही है। जब तक आप इंगलैंड और अमेरिका में रहे तब तक मातृभाषा की महत्ता आपके ध्यान में नहीं आई। क्योंकि उन देशों की भाषा अंगरेज़ी है और आप भी अंगरेज़ी भाषा के धुक्कड़ या धुरन्धर पंडित हैं। पर जापान में विदेशी भाषा अँगरेज़ी का उतना ही आधिपत्य, जितना कि भारत में है उन्हें न दिखाई दिया। इस पर आप कहते हैं―

“यद्यपि यहाँ पर अँगरेज़ी जाननेवाले कर्मचारी हैं, पर वे इतनी अँगरेज़ी नहीं जानते कि उनसे भलीभाँति बातचीत की जाय। सौभाग्य अथवा दुर्भाग्य से हमारे देश में शिक्षा विदेशी भाषा द्वारा होती है, इससे यदि ऐसा कहा जाय कि भारतीय पढ़े लिखे मनुष्य अपनी मातृ-भाषा की अपेक्षा अँगरेज़ी अधिक जानते हैं तो अत्युक्ति न होगी, क्योंकि बहुतेरे तो ऐसे भी हैं जिन्हें अपनी भाषा भी नहीं आती। मैं भी उसी श्रेणी का एक नराधम हूँ। इससे मुझे अब तक इंगलैंड और अमेरिका में इस बात का ध्यान भी नहीं आया था कि मेरी भाषा देशवासियों की भाषा से भिन्न है"। पृष्ठ १८९

यह कितनी अस्वाभाविक बात है कि हम लोग अपनी भाषा तो न जानें, पर ६००० मील दूरवर्ती टापू, इंगलैंड, की भाषा के