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पृष्ठ:समालोचना समुच्चय.djvu/८५

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पृथिवी-प्रदक्षिणा

पारगामी पण्डित बन जायँ। इस कारण लजित होना तो दूर रहा, उलटा अपनी अँगरेज़ीदानी पर गर्व भी करें। गुप्त जी ने यह इतना बड़ा ग्रंथ हिन्दी में लिख डाला है। अतएव वे अपनी मातृभाषा अवश्य ही जानते हैं। इस कारण वे तो नराधम नहीं, नरदेव हैं। परन्तु हाँ, जो भारतवासी अपनी भाषा नहीं जानते और जो उससे द्वेष करते या उससे उदासीन रहते हैं वे नराधम भले ही न हों: मातृभाषा में कोरे रह जाने के कारण, आत्मशत्रु और देशद्रोही ज़रूर हैं।

जापानियों की स्वदेश-भक्ति पर गुप्त जी ने जो कुछ लिखा है यह बड़े माल का है। उनको उक्तियाँ कुछ लम्बो ज़रूर हैं; परन्तु उनकी महत्ता के लिहाज़ से हम उन सभी को नीचे देने का लोभ-संवरण नहीं कर सकते। जापान के विषय में गुप्त जी कहते हैं―

“बड़े बड़े पुस्तकालय छप्परों में हैं। बड़ी वैज्ञानिक उद्योग-शालाओं में भी खड़ाऊँ पहिन कर हो जापानी लोग अपना काम कर लेते हैं। बिजली की रोशनी भी उन्होंने अपने छप्पर से छाये हुए मकानों में ही कर ली है। ऊँची ऊँची शिक्षा भी यहाँ उन्हीं बाँस की जाफरी से घिरे छप्परों तले होती है, जहाँ पहिले होती थी। १२ वर्ष योरप-अमरीका में भ्रमण करके भी जो पण्डितगण यहाँ लौटे हैं वे भी घर तथा बाहर अपना ‘किमानो' व ’गीता' ही पहनते हैं, घर में भी फ़र्श पर बैठते हैं, व सींक से भात-मछली का भोजन करते हैं तथा अपने इष्टमित्रों से पूर्व की भाँति ही मस्तक नवा कर मिलते हैं। हमारे देश की नाई नहीं कि ए० बी० सी० पढ़ने के साथ ही गिटपिट शुरू हुई। तीसरी कक्षा पहुँचे, बस हैट-बूट धारण करने लगे और चुरुट मुँह में रख फक फक धूम्र फेंकते चलने लगे। विलायत में तीन वर्ष रह बैरिस्टरी करके लौटे,