बस पिता से “वेल टोटाराम हाऊ डू यू डू" करना प्रारम्भ किया। घर से तुलसी का चौरा खोद फेंका, तख़्त वगै़रह निकाल दिये। तुलसी की जगह करोटन, फर्श की जगह टेबुल-कुर्सी, ब्राह्मण रसोइये की जगह बाबरची, पवित्र निरामिष आहार के स्थान में चौप मटन प्रारम्भ हुआ। अच्छे सीधे सादे बाबू जी साहब बन बैठे। इसे भोजन पचाना नहीं, उलटी खाना कहते हैं। जापान देश-भक्त है। वहाँ के निवासियों को स्वदेश में प्रेम है, बाहरी उन्नति की वस्तुओं को अपनाकर वे उनसे सुख लूटना जानते हैं। भारत गुलाम है, इसे ‘स्व' के नाम से ही घृणा है, दूसरों के किये हुए बमन में से दाना निकाल खाता है जिससे शरीर में विष फैल कर नाना प्रकार की व्याधियाँ होती हैं। यदि भारत को उन्नति करनी है तो उसे घमण्ड छोड़ जापान को गुरु बनाना होगा। जिस प्रकार यह देश-विदेश की वस्तुओं को लेते हुए भी अपनी चाल को नहीं छोड़ता, वही हमें भी करना होगा"। पृष्ठ ९९
कैसा अच्छा उपाय गुप्त जी ने बताया है। बातें बहुत कड़वी कह डाली हैं। पर कहें न तो क्या करें। बिना कहे रहा भी तो नहीं जाता। उनका तो जी जल रहा है। भारत की दुर्गति उनसे नहीं देखी जाती। इसी से उन्होंने हमारी अज्ञता, अविवेक और अदूरदर्शिता पर इतना आक्रोश किया है।
पर्य्यटक महाशय अपनी भाषा के इतने प्रेमी हैं और उसकी उन्नति के लिए इतने प्रयत्नशील हैं कि अनन्त धनराशि ख़र्च करके वे “आज" के सदृश सर्वोत्तम दैनिक पत्र हिन्दी में निकाल रहे हैं और अनेक उपादेय पुस्तकें अपने ज्ञान-मण्डल प्रेस से प्रकाशित कर रहे हैं। आपके हिन्दी प्रेम का यह हाल है कि चिट्ठी के लिफ़ाफे पर, पते के अन्त में, डाकख़ाने और ज़िले इत्यादि का