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समालोचना-समुच्चय

पेड़ में बाँध तेल छिड़क आग लगा दी। चारों बेचारे तड़प तड़प कर मर गये और ये नर-पिशाच खड़े हँसते रहे। मुझे आश्चर्य मालूम होता है कि अमरीका के पादरी क्या मुँह लेकर हमें सभ्यता सिखाने आते हैं। कदाचित् अमरीका में इन भेड़ों की बात सफेद भेड़िये नहीं सुनते होंगे। इसी से ये हमें उल्लू बनाने आते हैं। अमरीका को सभ्य समझना नितान्त भूल है। यह देश बिलकुल जङ्गली पशुओं से भरा है। किन्तु पुंश्चली दुष्टा लक्ष्मी की इन नरदेहधारी पशुओं पर कृपा है। बस इसी के भरोसे ये इतना कूदते हैं।” पृष्ठ ८८

अब आप रूस-जापान के युद्ध का स्मरण कीजिए। अपने अनन्त वीरों के उष्ण रुधिर की नदियाँ बहा कर जापान ने पोर्ट-आर्थर नामक अत्यन्त दुर्मेद्य दुर्ग को रूसियों से छीना था। उसके छीने जाने पर रूस के पैर सभी रणाङ्गणों से उखड़ते ही गये और फिर नहीं ठहरे। अन्त को जापान ने उसे पूर्णतया परास्त करके एशिया का मुख उज्ज्वल किया।

इस पोर्ट-आर्थर को एक तीर्थ, एक क्षेत्र, एक धाम समझ कर गुप्त जी ने उसके दर्शनों के लिए वहाँ की यात्रा की। वहाँ पहुँच कर उन्होंने उसकी प्रान्तवर्तिनो समग्र भूमि को परम पावन मान कर उसके दर्शनों से अपने को कृतार्थ जाना। फिर आपने वहाँ की रज को बड़ी श्रद्धा के साथ अपने मस्तक पर लगाया। मथुरा में श्रीकृष्ण जी ने जिस तरह कंस को पछाड़ कर भूमि का भार हलका किया था उसी तरह, गुप्त जी के कथनानुसार, रूस-रूपी कंस को श्रीकृष्ण के सखा-सदृश जापानियों ने पछाड़ कर योरप और अमेरिका के अत्याचारों से एशियाखण्ड का पिण्ड बहुत कुछ छुटा दिया। पार्ट-आर्थर को गुप्त जी एशिया का वाटरलू और मंचूरिया का हलदीघाट समझते हैं। उसकी भूरि