पृष्ठ:समालोचना समुच्चय.djvu/९५

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पृथिवी-प्रदक्षिणा

भूरि प्रशंसा और स्तुति करने के अनन्तर आपने उसे इस प्रकार प्रणाम किया है―

“हे नवयुग का प्रचार करने वाले! हे एशिया में स्वतन्त्रता की घोषणा करने वाले! हे यार-अमरीका को बाढ़ को रुद्ध करनेवाले! हे प्रातः स्वाधीन समीर बहा कर एशियावासियों के हृदय-कमल को खिलाने वाले! हे ‘एशिया फार एशियाटिक्स' (एशिया एशिया-निवासियों के लिए है) की घोषणा करने वाले पार्ट-आर्थर! तुम्हें बारम्बार प्रणाम है। हे योर-अमरीका के ताप से सूखती हुई एशिया की खेती पर आनन्दवर्षा करनेवाले! हे श्वेतांगों के तुषार से ठिठुरे हुए सवर्णों के शरीर को वसन्तागमन का सन्देशा पहुँचा कर गर्मी पहुँचाने वाले! तुमको प्रणाम है। हे यार-अमरीका की रजनी से आच्छादित एशिया-भूखण्ड को प्रभात-भानु से लोहित-वर्ण करनेवाले! तुमको प्रणाम है। हे एशिया को मोक्ष देने वाले लुसन पहाड़! आधुनिक समय के पुण्यधाम! भविष्य के बैतुलख़दा व स्वर्गद्वार! तुमको कोटि कोटि प्रणाम है। बन्दे पार्टआर्थरम्! वन्दे मातरम्।” पृष्ठ ३३८

आपकी पुस्तक से इतने लम्बे लम्बे वाक्य-समूहों की नक़ल करनेवाला यह नक्क़ाल मसिजीवी भी, ऐसी उत्तम पुस्तक लिख कर प्रकाशित करने के लिए, गुप्त जी को सादर प्रणाम करता है और आप ही की तरह प्रभाद-पूर्ण उच्च स्वर से कहता है― वन्दे मातरम्।

ऊपर दिये गये अवतरणों से पाठक सहज ही इस बात का अनुमान कर सकेंगे कि यह पुस्तक कितने महत्व की है और इसके पाठ से कहाँ तक शिक्षा की प्राप्ति और कहाँ तक ज्ञान की