और बंबई में रैयतवारी रीति नै । जहाँ ज़मींदारों रीति है वह ज़मींदार ही
सरकार की लगपन देने का ज़िम्मेदार होता है, चाहे वह खुद ज़मीन होते
सार्दै अारों से जुताचे। जहाँ यह रीति है यह ज़मींदार लेाग काइतकारों
से मनमाना लगान लेते हैं और एक निश्चित भोयाद के बाद उन्हें जमीन
से वेदल भी कर सकते हैं। केाई केई ज़मींदार सरकार के जितना लगान
देते हैं उससे बहुत ज़ियादह काश्तकारों से वसूल करते हैं। इससे वैचार
काश्तकारों के साल भर मेहनत करने पर भी पेट भर खाने की नहीं
मिलता। उनकी मेहनत का अधिकांश फल ज़मींदार और महाजम ही है
अर चला जाता है। उनपर क़र्ज़ लदता जाता है और दो चार बर्ष बाद
उनके हल वैल सब बिक जाने हैं। अन्यवाद की बात है जो गवर्नमेंट ने
क़ानून बना कर इन चुराइयों की बहुत कुछ कम कर दिया है । जहाँ रैयत-
चारी रीति से लगान लिया जाता है वह ज़मींदार की मध्यस्थता नहीं
दरकार हैती। सरकार खुद ही जमदार वन कर काश्तकारों में लगान
अतुल करती है। जहां यह रीति है वहां की भी रिमाया बुश नहीं ।
सरकार अपना लग्गन लेने से नहीं चूकती, पर, जमीन सुधारने के लिए
प्रायः फुछ भी खर्च नहीं करती। ज़मीन की उपजाऊ बनाने या न बनाने की
ज़िम्मेदारी काश्तकारों ही के सिर रहता है। पर उनकी यह डर लगा रहता
है कि सरकार जव चाहेगी लगन बढ़ा देगी. या जमीन ही से बंदल कर
देगी । इससे में घर की पूँजी लगा कर मन फै। उपजाऊ क्षभाने की बहुत
फम केशिश फाते हैं। जैसा बना थाड़ी बहुत याद डाल कर जाता चोय?
करते हैं। जमीन निःसत्व में जाने और पदाचार बहुत कम होने पर भी
उन्हें जमीन जातनी ही पड़ती है। क्योकि न जाने ने खायें गया? पड़ी रहने
दें ता भी लगान देना ही पर्दै । इससे धीरे धीरे ज़मीन का उपजाऊपन
नष्ट होता जाता है, पर लगान कम नहीं होता, अधिक चाहे भले ही है।
जाय । जव पैदावार बहुत कम हो जाती है और लगान नहीं चैबाक़ होता
क्षत्र क्र लेना पड़ता है। हम कम से क़र्ज़ को मात्रा बढ़ती जाती है और
एक दिन धर-द्वार, बैल-बधिया नीलाम हेर जाने हैं। बैंती ही प्रधान व्यवसाय
ठहरा । उसकी यह दशा हुने ने लोगों के भीख माँगने की नौबत आती
है। इससे सरकार को भी हानि होती है । चहुत सी ज़मीन पड़ी इंदू जाती
या लाचार, कर, अद्भुत थोड़े लगाने पर उठानी पड़ती है । खेती कम देने
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सम्पत्ति-शास्त्र।