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सम्पत्ति-शास्त्र।

बेचता हैं। इसके सिवा वह जमा-ख़र्च का हिसाब भी रखता है। जो कुछ वह करता है ख़ूब सोच-समझ कर करता है जिसमें हानि न हो। इस सब मेहनत को थोड़ी और कम महत्त्व की न समझना चाहिए। कारख़ाने का चलना बहुत करके अच्छे मैनेजर के होने ही पर अवलम्बित रहता हैं। क्योंकि नाज़ुक और जोखिम के वक्त में अपने कारख़ाने और कारोबार के जारी रखने के लिए मैनेजर के बड़ी जांफिशानी और बड़ी होशियारी से काम करना पड़ता है। इस दशा में उसे अपनी मेहनत का काफ़ी बदला ज़रूरही मिलनी चाहिए। यदि किसी कारख़ाने या कारोबार का मालिकही उसका मैनेजर है तो पूँजी के सूद और मज़दूरी इत्यादि से जो कुछ बढ़ता है उसे बह अपनी मेहनत का बदला समझता है। यदि मैनेजर कोई और होता है तो उसे काफ़ी तनख़्वाह देनी पड़ती है। सब देलेकर मुनाफ़े का अवशिष्ट भागही कारख़ानेदार को मिलती है।

व्यापार-व्यवसाय करने वालों को हानि से बचने के लिए हमेशा प्रयत्न करना पड़ता है। कभी कभी, बहुत होशियारी से काम करने पर भी, उनकी हानि हो जाती है, उससे बचने का कोई मार्ग ही नहीं रह जाता। कभी काम करनेवाले समय पर नहीं मिलते, कभी माल-मसाला नहीं मिलता, कसी बाज़ार-भाव मन्दा हो जाता है, कभी माल अच्छा न तैयार होने से ख़रीदार नहीं मिलते। ऐसी अवस्थाओं में व्यवसायी, या कारख़ाने के मालिक, को अनेक आफ़तों का सामना करना पड़ता है। ऐसे समय में उसे बहुधा बड़ी बड़ी हानियाँ उठानी पड़ती हैं। कभी कभी तो वह अपनी सारी पूँजी खोकर कौड़ी कौड़ी के लिए मोहताज़ हो जाता है। अतएव से जोखिम के कामों में यदि उसे अधिक मुनाफ़े की आशा न होगी तो क्यों वह बड़े बड़े व्यापार करेगा और क्यों बड़े बड़े कारखाने चलायेगा? मुनाफ़े की आशा ही उससे ये सब जोखिम के काम कराती है। अन्यथा तीन या चार फ़ी सदी सूद पर किसी विश्वसनीय बैंक में रुपया लगा कर वह आनन्द से अपने घर न बैठा रहता। इससे सिद्ध है कि पूँजी के सुद और मज़दूरी आदि के ख़र्चे के सिवा व्यवसायियों और कारख़ाने के मालिकों को जोखिम का भी बदला मिलना चाहिए और जोखिम जितना ही अधिक हो बदला भी उनताहीं अधिक होना चाहिए।

कल-कारख़ाने वही आदमी चला सकता है जिसमें उस काम के योग्य