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सम्पत्ति-शास्त्र।


जो चीज़े कलों की सहायता से बनाई जाती हैं उनका खप बढ़ने से मुनाफ़ा अधिक होता है। क्योंकि माल जितना ही अधिक तैयार होगा, ख़र्च का औसत उतना ही कम पड़ेगा। कल्पना कीजिए कि कानपुर के पुतली घर में धोती जोड़ों की एक गठरी तैयार करने में १०० रुपये ख़र्च पड़ते हैं और उसकी क़ीमत १२५ रुपये आते हैं। अर्थात् २५ रुपये फ़ी गठरी मुनाफ़ा होता है। कुछ दिन बाद "स्वदेशी" ने बहुत ज़ोर पकड़ा। इससे देशी धातियों का खप बढ़ गया। पुतलीघरों में और ज़ियादह कहें लगा दी गईं और रात दिन काम होने लगा। परिणाम यह हुआ कि जहाँ पहले एक गठरी पर १०० रुएये ख़र्च पड़ता था तहाँ अब सिर्फ़ ८० रुपये पड़ने लगा। पर माल की आमदनी बहुत होने से अब एक गठरी १२५ की नहीं, किन्तु १२० ही की बिकने लगी। फल यह हुआ कि बाज़ार भाव गिर जाने पर भी, २० रुपया फ़ी गठरी ख़र्च कम हो जाने से, अब गठरी पीछे ४० रुपये मुनाफ़ा मिलने लगा। इससे स्पष्ट है कि किसी चीज़ की क़ीमत बढ़ने ही से मुनाफ़ा होता है, यह भ्रम है। क़ीमत कम आने पर भी मुनाफ़ा अधिक हो सकता है, यह यहाँ पर दिये गये उदाहरण से साबित है। अतएव यह निर्विवाद है कि मुनाफ़ा किसी चीज़ की क़ीमत पर अबलम्बित नहीं रहता, किन्तु उत्पत्ति के ख़र्च की कमी वेशी पर अबलम्बित रहता हैं।

जो चीज़ें खेती से पैदा होती हैं उनका खप बढ़ने से क़ीमत भी बढ़त हैं। पर, उनकी उत्पत्ति बढ़ाने की कोशिश करने में उत्पत्ति का ख़र्च अधिक बैठता है। अर्थात् जितनी उत्पत्ति बढ़ती है उसकी अपेक्षा ख़र्च अधिक पड़ता है। उत्पत्ति के ख़र्च में मुनाफ़े के सिवा और भी बहुत बातें शामिल रहती हैं। ये बढ़ती हैं, इसी से अनाज उत्पन्न करने का ख़र्च बढ़ता है। अनाज का खप अधिक होने से निकृष्टतर ज़मीन में खेती करनी पड़ती है। यह बात मज़दूरी बग़ैरह का ख़र्च बढ़ाये बिना नहीं हो सकती। परिणाम यह होता है कि अधिक अनाज पैदा करने की कोशिश में मुनाफ़ा तो होता नहीं, उलटा ख़र्च बढ़ जाता है। और उत्पत्ति का ख़र्च बढ़ने से क़ीमत बढ़नी हीं चाहिए अनाज महँगा बिकना ही चाहिए। परन्तु अनाज महँगा बिकने से बेचार काश्तकारों को मुनाफ़ा थोड़े ही होता है। उनका तो ख़र्च ही मुश्किल से निकलता है। अतएव जो लोग यह समझते हैं कि अनाज महँगा, होने से काश्तकारों को फ़ायदा होता है वे बहुत बड़ी भूल करते हैं।