पैदा होने वाली चीजों का विचार करने में कृपि की पैदावार ही को महत्व
दिया जाता है । सम्पत्तिशास्त्र में उसी पर अधिक बहस की जाती है।
ज़मीन से जानोजें पैदा होती है उनको सीमा । सीमा' सब पाती
की होती है-सब चीज़ों को होती है । एक बीघे जमीनम १०० मन गेहूं नहीं
पैदा हो सकता । क्योंकि इतनो पैदावार का होना ज़मोन की उत्पादक
शक्ति की सीमा के बाहर है । कल्पना कीजिए कि साधारमा तौर पर एक
बोधे मैं ३० मन गेष्ट होता है। अब यदि कोई किसान एक बीये में ५० मन
पैदा करने लंग, भार उसे देख कर. बहुत तदचीर बार कोशिश करने पर
भी, मार लोग उससे अधिक न पैदा कर सकें, ना समझ लेना चाहिए
कि फ़ी बीघे ५० मन में अधिक गे पैदा करने की गति जमीन में नहीं।
है। जमीन की पैदावार की यही सीमा हुई । यहाँ पर अव यह विचार
उपस्थित हुआ कि जिन खेतों में फ्री बीजे ३० मन से अधिक गेहूं नहीं
पैदा होता उनकी पैदावार किस तरह बढ़ाई जाय ! अन्यथा जिसने फ़ो बीघे
५० मन गेह पैदा किया उसने किन युक्तियों से काम लिया ! उचर यह है
कि अधिक मेहनत करने पर अधिक पूंजी लगाने से पैदावार बढ़ती है ।
कोई काम करने में हानि-लाभ का विचार जरूर किया जाता है। ३०
को जगह ५० मन गेह पैदा करने में भी इस बात का विचार करना पड़ेगा।
पयोंकि २० मन अधिक गह पैदा करने में जो लागत लगेगो वह यदि तिने
गोई की शामत के बराबर या उससे अधिक हो जाय ना अधिक पैदावार से
फ़ायदा हो क्या हुआ? कुछ समय तक खेती करने रहने से जमीन की उत्पा-
दक शक्ति क्षीण हो जाती है। यह निभ्रान्त है। वह यहाँ तक क्षीण हो जाती
कि परिश्रम पार पूंजी के रूप में अधिक लागत लगाने पर भी उस लागत के
अनुसार पदावार नहीं बढ़ती । प्रथया यां फहिए कि धाड़ी पैदावार बढ़ाने
के लिए बहुत खर्च करना पड़ता है । इसी का अंगरेजी नाम है-N
of Diminishing lieturns" अर्थात् फ्रमागत हास-नियम । अतएव जहां
तक इस "हास" का आरम्भ न हो वहीं तक अधिक परिश्रम करना प्रार
अधिक पूजी लगाना मुनासिब होगा । कृषिविद्या के नियमों के अनुसार
जैसे जमीन की उत्पादक शक्ति की सीमा है से ही पैदाधार बढ़ाने के लिए
पूंजी लगाने पार मेहनत करने की भी सीमा है। बात यह है कि पूंजी
पार परिश्रम की वृद्धि वहीं सक करनी चाहिए जहां तक कि बढ़ी हुई