पैदावार से उसका बदला भी मिल आय और कुछ बच भो रहे । स्वैर न
बचे तो कुछ घर से तो न देना पड़े।
अहां तक ज़मीन की उर्वरा था उत्पादक शक्ति को सीमा का अतिक्रम. नहीं होता वहीं तक अधिक खर्च करने से लाभ हो सकता है । आगे नहीं। उत्पादकता की सीमा पर पहुँच जाने पर खर्च बढ़ाने से लाभ के बदले उलटा हानि होती है। यह बात एक उदाहरंग द्वारा मार भी अच्छी तरह ध्यान मैं अा जायगो । मान लीजिए कि तीन सौ बीघे जमोन का एक टुकड़ा है । उत्तको सालाना पैदावार छ हज़ार मन गल्ला है। दस आदमी मिलकर उसमें खेती करते हैं। इस हिसाब सेफ़ी बोधे बीस मन और फ़ी आदमी छ सौ मन गल्ला पड़ा। अब यदि पाँच आदमी और साझी हो जायें और खाद, सिंचाई तथा यंत्रों आदि में रुपया खर्च करके अर्थात् पूजी और मेहनत की मात्रा को बढ़ाकर अधिक ग़ल्ल। पैदा करने की कोशिश करें तो इस बात को देखना होगा कि कितना अधिक गल्ला पैदा होगा। पहले फ़ी आदमी छ सौ मन पड़ता था; अब इतना ही पड़ेगा या कमायेंश। यहां पर यह विचार करना होगा कि ज़मीन की उत्पादक शक्ति पहले ही अपनी सीमा को पहुँचगई थी या नहीं। यदि नहीं पहुंची थी तो दस की जगह पन्द्रह आदमियों की पूजी और मेहनत से पहले की अपेक्षा अधिक पैदा- चार हो सकती है। अर्थात् फी आदमो छ सो मन से अधिक गल्ला पड़ सकता है। परन्तु यदि उस सोमा को वह पहले ही पहुंच चुकी है तो छ सौ मन से कम हो पड़ेगा । फल यह होगा कि पैदावार बढ़ाने की कोशिश में, अधिक पूजो लगाने और अधिक मेहनत करने पर भी, फी आदमी हिस्सा कम पड़ेगा। धीरे धीरे यह हिस्सा और भी कम होता जायगा । यहां तक कि दो चार वर्ष बाद पैदावार को अपेक्षा खर्च बढ़ जायगा और उन पन्द्रह आदमियों का गुजारा मुश्किल से होगा। उन्हें ज़मोन छोड़ कर भगना पड़ेगा।
जिस जमीन की पैदावार सिर्फ जोतने, बेने, रखाने, आदि के खर्च के
बराबर होती है उसे कहते हैं कि वह कृपि की पूर्व सीमा पर स्थित है। अर्थात्
खेती करने की ठीक पहली हद पर है। इससे मालूम हुआ कि अमीन की
उत्पादकता की दो सीमायें हैं । एक तो वह जिसके नीचे चले जाने से कोई
खेती ही नहीं सकता: क्योंकि इस दशा में खर्च ही नहीं निकलता ।
दूसरी वह जिसमें अधिक से अधिक पैदावार होती है-इतनी कि उससे