पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 1.pdf/२५

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इस खण्डकी भूमिका


इस खण्डमें गांधीजीके जीवनके प्रारम्भिक कालकी सामग्री दी जा रही है। यह काल सम्पादकोंके लिए सबसे कठिन रहा। इससे अधिक सक्रिय बादवाले भागमें गांधीजी विदेशोंमें रहे थे। इंग्लैंडमें वे पढ़ते थे और दक्षिण आफ्रिकामें शुरू-शुरूमें बैरिस्टरकी हैसियतसे गये थे। फलत: इस कालकी मूल सामग्री भी मुख्यतः इन्हीं दोनों देशोंमें उपलब्ध थी।

सौभाग्यसे गांधीजीते इस कालकी कुछ सामग्री सुरक्षित रखी थी और उसे वे भारत ले आये थे। उसमें निमंलिखित वस्तुएँ थी: उनके पत्र-व्यवहारकी कार्बन-नकलें, पत्रों और स्मरणपत्रोंके हस्तलिखित मसविदे, प्रार्थतापत्रों और उनके द्वारा प्रकाशित पुस्तिकाओंकी टाइप की हुई या छपी प्रत्तियाँ, दक्षिण आफ्रिकी समाचारपत्रोंकी कतरनें और दक्षिण आफ्रिकाकी कुछ सरकारी रिपोर्टे, जिनमें उनके कुछ पत्र, प्रार्थनापत्र और वक्‍तव्य छपे थे।

फिर भी, गांधीजीनें अपनी लिखी हुई सब वस्तुएँ सुरक्षित नहीं रखी थीं। उन्होंने हिन्दू धर्मके मूल तत्त्वोंपर कुछ लिखा था। उसकी चर्चा करते हुए अपनी गुजराती प्रुस्तक 'दक्षिण आफ्रिकाना सत्याग्रहनो इतिहास' (१९५०, पृष्ठ २७८)में उन्होंने कहा है: “ऐसी तो कितनी ही चीजें मैंने अपने जीवनमें फेंक दी हैं, या जला डाली हैं। इन वस्तुओंका संग्रह करनेकी जरूरत जैसे-जैसे मुझे कम मालूम होती गई और जैसे-जैसे मेरी सक्तियताका क्षेत्र बढ़ा, वैसे-वैसे में इन्हें नष्ट करता गया। इसका मुझे पछतावा नहीं है। इन वस्तुओंका संग्रह मेरे लिए भार-रूप और बहुत खर्चीला हो जाता। मुझे इनको संचित करनेके साधन जुटाने पड़ते। यह मेरी अपरिग्रही आत्माके लिए असह्य होता।”

लंदन और दक्षिण आफ्रिकामें जो सरकारी तथा अन्य कागज-पत्र उपलब्ध हैं, उनसे शोध-सहासक हमारे लिए सामग्री एकत्र कर रहे है। गांधीजी स्वयं अपने साथ दक्षिण आफ्रिकासे जो सामग्री ले आये थे उसमें जो-कुछ कमी थी उसे इस सामग्रीसे पूरा कर लिया गया है।

दक्षिण आफ्रिकासे सम्बन्ध रखनेवाली सामग्रीमें अनेक प्रार्थनापत्र और स्मरणपत्र सम्मिलित हैं, जो गांधीजीने वहाँके भारतीय समाजकी ओरसे भेजे थे। उनपर गांधीजीके नहीं, बल्कि समाजके प्रतिनिधि नेताओं या नेंटाल भारतीय कांग्रेस अथवा ट्रान्सवाल ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन जैसी संस्थाओंके पदाधिकारियोंके हस्ताक्षर हैं। फिर भी उनके मसविदे गांधीजीके ही बताये हुए हैं। उनके २५ सितम्बर, १८९५ के पत्रसे (जो इस खण्डमें २६७ पृष्ठपर दिया गया है) यह स्पष्ट दिखलाई पड़ता हैं। उसमें उन्होंने कहा है: “. . . अनेकानेक प्रार्थनापत्रोंका मसविदा बनानेकी जिम्मेदारी पूरी-पूरी मुझपर है,” लॉर्ड रिपनको जुलाई १८९४ में भेजे गये प्रार्थनापत्रके बारेमें इसका