अब प्रार्थी अपना मामला आपके हाथोंमें छोड़ते हैं। ऐसा करते हुए वे उत्कटता से प्रार्थना और दृढ़ आशा करते हैं कि उपर्युक्त विधेयकको सम्राज्ञीकी अनुमति प्राप्त नहीं होगी और अगर भारतीय मतों द्वारा यूरोपीय मतोंको निगल जानेका कोई भी भय हो तो जाँचका आदेश दिया जायेगा कि क्या वर्तमान कानूनके अन्तर्गत सचमुच ही कोई ऐसा खतरा मौजूद है या फिर कोई दूसरी ऐसी राहत दी जायेगी, जिससे न्यायका उद्देश्य पूरा हो।
और न्याय तथा दयाके इस कार्यके लिए प्रार्थी, कर्त्तव्य समझकर, सदैव दुआ करेंगे, आदि।[१]
अब्दुल करीम हाजी आदम
तथा अन्य
अंग्रेजी (एस° एन° ९७९-८३) की फोटो-नकलसे।
९५. भाषण : भारतीयोंकी सभा में[२]
४ जून, १८९६
मानपत्र भेंट कर दिया जानेपर उसका जवाब देते हुए श्री गांधीने इस कृपाके लिए सबके प्रति आभार प्रकट किया और कहा कि इस प्रसंगसे यह बात साफ हो गई है कि नेटालमें आये हुए भारतीय चाहे किसी जातिके हों, वे सब यहाँ एकताके नये बन्धनमें अपनेको बाँधना चाहते हैं। श्री गांधीने कहा कि मैं मानता हूँ कि कांग्रेसके उद्देश्यके बारेमें भारतीयोंमें कोई मतभेद नहीं है। क्योंकि अगर ऐसी कोई
- ↑ सी° बर्डने २५ सितम्बर, १८९६ को प्रार्थियोंको चेम्बरछेनका निर्णय सूचित किया कि "सम्राज्ञी सरकारने उनके प्रार्थनापत्रपर पूरी सावधानीके साथ विचार कर लिया है, परन्तु वह सम्राज्ञीको विधेयकको मंजूरी न देनेकी सलाह देना उचित नहीं समझती। (एस° एन° १६०)
- ↑ गांधीजीके भारतके लिए जहाज द्वारा रवाना होनेके एक दिन पहले नेटाल भारतीय कांग्रेसके सभा भवनमें डर्बनके तमिल और गुजराती भारतीयोंकी एक सभा हुई थी, जिसमें दूसरे समाजोंके लोग भी शामिल थे। गांधीजीने नेटाल भारतीय कांग्रेसके अवैतनिक मन्त्रीको हैसियतसे भारतीयोंकी जो सेवाएँ की थीं उनका उनकी भोरसे सम्मान करना सभाका उद्देश्य था। उपस्थिति बहुत काफी थी और उत्साह भी बहुत था। सभापतिका आसन दादा अब्दुल्लाने ग्रहण किया था।