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कुछ भारतीय त्योहार-१

बनाते हैं। बीच में एक बड़ा दीप-स्तम्भ रखा जाता है। वह बड़ा सुन्दर बनाया जाता है और उसके चारों ओर बत्तियाँ जलती हैं। बीच में ढोलक लिये हुए एक आदमी भी बैठता है। वह कोई लोक-गीत गाता है। घेरे के लोग हाथ से ताल दे-देकर उस गीत को दुहराते हैं। गाते-गाते और झूम-झूमकर नाचते हुए वे दीपक की परिक्रमा करते हैं। अकसर इन गरबियों को सुनने में बड़ा आनन्द आता है।

यह कह देना आवश्यक है कि लड़कियाँ--और खास तौर से स्त्रियाँ--इनमें कभी शामिल नहीं होतीं। अलबत्ता, वे अपनी गरबियाँ अलग रचा सकती है, जिनमें पुरुषों को शामिल नहीं किया जाता। कुछ परिवारों में अर्ध-उपवास की प्रथा होती है। उसमें परिवारके एक सदस्यका उपवास कर लेना काफी होता है। उपवास करनेवाला केवल एक बार और वह भी शामको भोजन करता है। इसके अलावा, उसके लिए गेहूँ, बाजरा, दाल आदि अनाज खाना वर्जित होता है। उसका आहार फल, दूध और आलू आदिके समान कन्दों तक ही सीमित रहता है।

महीने का दसवाँ दिन 'दशहरा' कहलाता है। उस दिन मित्र आपस में मिलते है और एक-दूसरे की दावत करते हैं। मित्रों और खासकर मालिकों और बड़े लोगों को भेट में मिठाई भेजने की भी प्रथा है। दशहरा के दिन को छोड़कर मनोरंजन के सारे कार्य-क्रम रातमें होते हैं। दिनके समय दैनिक जीवनके साधारण काम-धंधे किये जाते है। दशहरा के बाद लगभग एक पखवारे तक अपेक्षाकृत शान्ति रहती है। केवल महिलाएँ आगे आनेवाले भव्य दिनके लिए मिठाइयाँ, पकवान आदि बनानेमें व्यस्त रहती हैं,क्योंकि भारतमें ऊँचेसे-ऊँचे वर्ग की महिलाएँ भी भोजन बनाने से एतराज नहीं करती।वास्तव में यह एक गुण है, और माना जाता है कि प्रत्येक स्त्री में यह होता ही है।

इस प्रकार, दावतों और गाने-बजाने में शामें बिताते हुए हम आश्विन कृष्ण तेरस पर पहुँचते हैं। (भारतमें प्रत्येक मास के दो पक्ष होते है - कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष। इनका प्रारम्भ पूर्णिमा और अमावस्या से होता है। पूर्णिमा के बाद का दिन कृष्णपक्ष का पहला दिन होता है। इसी तरह दूसरे, तीसरे आदि पन्द्रहवें दिन तक की गणना की जाती है) । तेरहवाँ दिन और उसके बादके तीन दिन पूरी तरहसे उत्सवमें बिताये जाते हैं। तेरहवें दिनको 'धनतेरस' कहा जाता है, जिसका अर्थ है--धन की देवी लक्ष्मी के पूजन के लिए निश्चित किया हुआ तेरहवाँ दिन । धनी लोग तरह-तरहके रत्न और सिक्के आदि एकत्रित करके सावधानीके साथ एक सन्दूक में रखते हैं। इनका उपयोग पूजा के अलावा और किसी काम में नहीं किया जाता। हर वर्ष इस संग्रहमें कुछ वृद्धि की जाती है। फिर उसकी पूजा होती है। अपने हृदय में तो धन की कामना या दूसरे शब्दों में पूजा कुछ गिने-चुने लोगों को छोड़कर कौन नहीं करता? परन्तु यहाँ पूजा--अर्थात् बाह्यपूजा--रूपमें उस द्रव्य को पानी और दूधसे स्नान कराया जाता है, बादमें उसपर फूल चढ़ाये जाते हैं और कुंकुम लगाया जाता है।

चौदहवें दिन को 'काली चौदस' कहा जाता है। परन्तु उस दिन लोग तड़के उठते हैं और आलसी से--आलसी आदमी को भी अच्छी तरह स्नान करना पड़ता है। माँ अपने छोटे-छोटे बच्चों को भी स्नान करनेके लिए बाध्य करती है, हालाँकि वह