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पत्र: जी० ए० नटेसनको


बाद, भारतसे गिरमिटिया मजदूरोंके भेजे जानेके मसलेपर मेरी कुछ बहुत पुख्ता रायें बन गई हैं। यदि मजदूरोंको मालिकोंसे उचित व्यवहार दिलवा सकना सम्भव होता तो भी (हम जानते हैं कि वह सम्भव नहीं है) यह प्रथा मूलतः बुरी है। गिरमिटियोंकी नैतिकताका बड़ा ह्रास हो जाता है। कीड़े-मकोड़ोंकी तरह उनमें से कुछकी हालत तो सुधर जाती है, किन्तु मनुष्यके रूपमें सभीका पतन ही होता है। इस प्रवाससे गरीबीकी समस्याके समाधानमें किसी भी तरहकी सहायता नहीं मिल पाई है। अपने दारिद्र्य पीड़ित भाइयोंको लगभग गुलामोंके रूपमें बाहर भेजनेके फलस्वरूप हमारे राष्ट्रीय गौरवको ठेस पहुँचती है। स्वतन्त्र मनुष्योंका कोई राष्ट्र ऐसी किसी प्रथाको एक क्षण भी सहन नहीं करेगा। इसलिए मुझे आशा है कि आप पहले भारतसे बाहर और फिर देशमें इस प्रथाको समाप्त करानेके लिए अपनी पूरी शक्तिसे आन्दोलन करेंगे। यदि मेरा वश होता तो निश्चय ही गिरमिट-प्रथाके अधीन एक भी भारतीयको और कहीं तो क्या मैं आसाम भी नहीं भेजता।

भले ही काफी परिवर्तित रूपमें, किन्तु चूंकि संघर्ष केवल स्थगित ही किया गया है, टॉल्स्टॉय फार्म चलता रहेगा।

श्री और श्रीमती पोलक नवम्बर माहके आसपास भारतमें होंगे और अगले वर्ष जनरल स्मट्स द्वारा विधेयक पेश किये जाने तक भारत ही में रहेंगे।

हमारे लिए आपने जो कुछ किया है, उसके लिए एक बार फिर धन्यवाद सहित,

हृदयसे आपका,
मो० क० गांधी

गांधीजीके स्वाक्षरोंमें मूल अंग्रेजी प्रति (जी० एन० २२२४) की फोटो-नकलसे।

८०. पत्र: जी० ए० नटेसनको

जोहानिसबर्ग
जून २, १९११[१]

प्रिय श्री नटेसन,

यह पत्र श्री० आर० एम० सोढाका परिचय कराने के लिए लिख रहा हूँ। आप जानते ही हैं, श्री सोढा हमारे सर्वाधिक पक्के सत्याग्रहियोंमें से एक है। यदि अपनी यात्राके दौरान श्री सोढा आपकी ओर आ निकले तो आप उन्हें हमारे नेतागणोंसे मिला देनेकी कृपा करें। श्री सोढा उन स्वनाम धन्य' श्रीमती सोढाके पति है जिनपर ट्रान्सवाल सरकारने अत्याचार किये थे।

हृदयसे आपका
मो० क० गांधी

गांधीजीके स्वाक्षरोंमें (सी० डब्ल्यू० ३४२२) से।

सौजन्य : रेवाशंकर सोढा ।

  1. रतनसी सोढा जून २, १९११ को भारत रवाना हुए। तबतक २० अप्रैलका अस्थायी समझौता हो चुका था। इंडियन ओपिनियन, १०-६-१९११