पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 11.pdf/२१२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१७६
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


था, और उसी वर्ष अप्रैलमें मैरित्सबर्ग-स्थित उपनिवेश-सचिवके कार्यालयसे अंग्रेजी, हिन्दी और तमिल भाषाओंमें छपा हुआ एक परिपत्र[१] जारी किया गया जिसमें कहा गया था कि जिन भारतीय पुरुषों और स्त्रियोंको ३ पौंडी परवाना ले लेना चाहिए था, लेकिन जिन्होंने अभीतक लिया न हो, वे कमसे-कम दो सालकी अवधिके लिए पुनः गिरमिटिया-करार कर सकते है, या कमसे-कम दो सालकी अवधिके लिए दीवानी करार कर सकते हैं, और इस करार या गिरमिटकी हालतमें उनसे परवाना-शुल्क नहीं माँगा जायेगा, और यदि वे भारत लौट जायें, तो उन्हें बकाया परवाना-शुल्ककी रकम देनको बाध्य नहीं किया जायगा।[२]

उपर्युक्त तथ्योंपर विचार करने पर इसके अलावा कोई दूसरा निष्कर्ष निकालना असम्भव है कि कानूनका यह मंशा कभी नहीं था कि भूतपूर्व गिरमिटिया भारतीयोंको दोबारा गिरमिटियाके रूपमें काम करनेकी या नौकरीके करारके अनसार नौकरके रूपमें काम करनेकी अवधिमें तीन-पौंडी कर देना पड़ेगा। इस समीक्षाका विशेष उद्देश्य यह है कि दोबारा गिरमिटियाके रूपमें काम करनेकी अवधिमें कर चुकानेके विषयमें विधानमण्डलकी मंशाके बारेमें जो संदेह हो उसे दूर कर दे। इस करके विरुद्ध तो हम सदैव पूरे बलसे लड़ते ही रहे है,[३] और तबतक लड़ते रहेंगे जबतक यह घातक और अन्यायपूर्ण कानून विधि-पुस्तिकासे निकाल नहीं दिया जाता।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, ११-११-१९११

  1. १. देखिए खण्ड १०, पृष्ठ २५४ ।
  2. २. संघका निर्माण होनेसे पूर्व, अप्रैल १९१० में यह परिपत्र नेटालके भारतीयोंकी सूचनाके लिए निकाला गया था और इससे बहुत भ्रम फैला । उपनिवेश-सचिवके कार्यालयसे मूल परिपत्र निकला, लेकिन उसका हिन्दी और तमिल अनुवाद एशियाई संरक्षकके विभागसे जारी किया गया । अधिनियमकी धारा ३ ने फिरसे गिरमिट अपनानेवाले भारतीयोंको तीन पौंडी करकी बकाया रकम चुकानेसे माफी दे दी थी, लेकिन अंग्रेजी परिपत्र में "बकाया परवाना-शुक" लिखा था । हिन्दी और तमिल अनुवादमें तो शायद चालू भुगतानसे भी छट दी गई थी। परिपत्र में अधिनियमकी उक्त धाराकी जो व्याख्या की गई थी, वह संघके न्यायाधिकारियोंकी व्याख्यासे भिन्न थी। वे कहते थे, कानूनकी शब्द-रचना ऐसी है जिसके अनुसार फिरसे गिरमिट स्वीकार करनेवाले व्यक्ति चालू कर देनेको बाध्य हैं। इन परस्पर-विरोधी व्याख्याओंकी ओर ध्यान दिलाते हुए नेटाल मक्यरीने ८ नवम्बर, १९११के अंकमें एक लेख लिखा था। इंडियन ओपिनियन, ११-११-१९११।।
  3. ३. नेटालके भारतीयोंने गिरमिटले स्वतन्त्र होनेवाले भारतीयोंपर ३ पौंडी कर लगानेका सदा ही विरोध किया था। उनके अनुसार, यह कर राजस्वके एक साधनके रूपमें नहीं लगाया गया था बल्कि इसका मंशा गिरमिटकी अवधि समाप्त करनेवाले भारतीयोंको उपनिवेशसे भगा देनेका था; और यह मंशा ब्रिटिश संविधानकी परम्पराओं के अनुकूल नहीं था। देखिए खण्ड १, पृष्ठ १२७, १७९-८१, २१५-१७, २१७-३२ और २३२-३५, खण्ड २, पृष्ठ ६५-६६ तथा खण्ड ९, पृष्ठ ३४७-४८।