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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय
शुल्क अदा न किया हो, मुकदमे चलाये जानेकी हिदायतें जारी की थीं। एक परीक्षणात्मक मुकदमा उमलाजीकी[१] अदालतमें दायर किया गया था । उसमें अदालतने फैसला दिया कि गिरमिटकी अवधि में शुल्ककी वसूली मुल्तवी रखी जाये । इसपर जो चालीस- पचास समन्स जारी किये जा चुके थे, वे वापस ले लिये गये। मालूम पड़ता है कि सरकारने भी उस फैसलेको मान लिया था, क्योंकि फिर इस विषय में और कुछ नहीं सुना गया। अब प्रतीत होता है कि लोअर टुगेला डिवीज़नके मजिस्ट्रेटने इस आशयका निर्णय दिया है कि चालू परवानेका शुल्क अवश्य अदा किया जाये । सर्वोच्च न्यायालय ने भी यह फैसला बहाल रखा। इससे झगड़ा अब फिर उभरकर सामने आ गया है। कुछ ही समय हमें मालूम हो जायेगा कि सरकारका इरादा इस सम्बन्धमें क्या है । यदि न्याय मन्त्रीके हृदयमें तनिक भी मानवता अवशिष्ट होगी तो वह अदालतोंके नाम तुरन्त ही मुकदमे न चलाने के आदेश जारी कर देंगे, क्योंकि वे भली-भाँति जानते हैं कि जिन लोगोंपर इस निर्णयका प्रभाव पड़ेगा, उनमें से सब नहीं तो बहुत-से भूतपूर्व नेटाल सरकारकी गश्ती चिट्ठी में दिये हुए प्रलोभनके कारण ही नये गिरमिटमें फँस गये हैं। हमें पता लगा है कि कानूनके यन्त्रको गति दी जा रही. है और लोगोंके नाम समन्स जारी किये जा रहे हैं।
इस सारी कार्रवाई में एक पहलू मजाकका भी है। हमें मालूम हुआ है कि यदि कोई स्वतन्त्र भारतीय कर देनेसे बच निकले और भारत लौट जाना चाहे तो उसे जानेसे कोई रोकता नहीं; भले ही ऐसे लोगोंकी देनदारी बीस-बीस पौंड तक क्यों न पहुंच चुकी हो। परन्तु यही सरकार उस आदमीको, जो धोखेमें फँसकर दुबारा गिरमिटिया बन गया हो, यह इनाम बख्शती है कि वह अपने खेत मालिकों या दूसरे मालिकोंके लाभके खातिर जबतक चाहे तबतक ३ पौंड सालाना कर चुकाते हुए गुलामी में छोजता रहे । निश्चय ही इस प्रणालीके अन्याय और बेहूदेपनको समझने के लिए किसी बड़ी अक्लकी जरूरत नहीं है ।
इस अंक में जिस पृष्ठपर यह निर्णय दिया गया है उसीपर हम नेटाल भारतीय कांग्रेस द्वारा गत नवम्बर में न्यायमन्त्रीके नाम भेजे गये पत्रका गृह-सचिव द्वारा भेजा गया उत्तर भी छाप रहे हैं। कांग्रेसने प्रार्थना की थी कि जिन लोगोंने गश्ती चिट्ठीकी हिदायतोंका पालन किया है उन सबको [ पिछले ] शुल्ककी अदायगीसे मुक्त कर दिया जाये । अब देखिए कि तीन महीने बाद उसका परिणाम क्या निकला । इन बेचारे भारतीयोंके नाम समन्स न्यायमन्त्रीके विभागकी ओरसे निकाले गये थे और फिर उसीने बिना कुछ सुने एक ऐसा पत्र लिखकर गृह-विभागको भेजा । जिसका उत्तर
 
  1. वेंकटाचल नायकको ३ पौंडी करको गैर अदायगीके आरोपमें किसी समय नवम्बर, १९११ में उमलाज़ोकी अदालत में पेश किया था। मजिस्टेटने निर्णय दिया कि उससे चालू. परवाना शुल्क नहीं लिया जाना चाहिए । कारण कदाचित् यह था कि उसने किसीके साथ दीवानी अनुबन्ध किया था। इस निर्णयके बाद कोई ४०-५० समन्स, जो जारी किये जा चुके थे, वापस ले लिये गये । नेटाल भारतीय कांग्रेसने १७ फरवरी, १९१२ को गृह मन्त्रालयके कार्यवाहक सचिवके नाम लिखे अपने पत्र में इस मामलेका उदाहरण दिया था । देखिए इंडियन ओपिनियन, २४-२-१९१२ ।