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२००. पत्र : ई० एफ० सी० लेनको[१]

[ लॉली ]
फरवरी २४, १९१२

प्रिय श्री लेन,

अब मुझे विधेयकके बारेमें कानूनी सलाहकारकी राय मिल गई है। उसके अनुसार :

(१) यह विधेयक छोटी अदालतोंका अधिकार क्षेत्र तो समाप्त कर ही देता है, शाही हुक्मनामेके रूपमें पेश किये गये मामलेके अलावा अन्य मामलों में ऊँची अदालतोंकी सत्ता भी समाप्त कर देता है ।[२]
इससे औरोंके नहीं तो कमसे-कम ट्रान्सवालके भारतीयोंके कानूनी अधिकार निश्चय ही कम हो जाते हैं ।
(२) यह भी हो सकता है कि अगर ट्रान्सवालके ब्रिटिश भारतीय भले ही वे विधिवत् पंजीकृत हों अपने स्त्री-बच्चोंको उपनिवेशमें लाना चाहें तो उनसे, पंजीयन के प्रमाणोंके अलावा, उनके अधिवासी होनेके प्रमाण भी माँगे जायें।[३]
मुझे विश्वास है कि जनरल स्मट्सका कोई ऐसा इरादा नहीं है । अतः मेरा ख्याल है, इस मुद्दे पर किसी भी सन्देहकी कोई गुंजाइश नहीं छोड़नी चाहिए ।
(३) शिक्षित एशियाई प्रवासियोंको ऑरेंज फ्री स्टेट संविधानके परिच्छेद ३३, खण्ड ८ के अन्तर्गत अपने बारेमें कुछ आवश्यक सूचनाएँ देनी होंगी।[४]

यह तो मानना ही पड़ेगा कि मैंने जिन मुद्दोंका उल्लेख किया है, वे सभी सत्याग्रहकी दृष्टिसे और सामान्य न्यायकी दृष्टिसे भी अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं । इसलिए मुझे विश्वास है कि इन दोषोंका निराकरण कर दिया जायेगा ।

हृदय से आपका,

अर्नेस्ट एफ० सी० लेन
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टाइप की हुई दफ्तरी अंग्रेजी प्रति (एस० एन० ५६३४) की फोटो - नकलसे ।

 
  1. देखिए ई० एफ० सी० लेन और आर० ग्रेगरोवस्कीको लिखे पत्र, पृष्ठ २२७-३१ ।
  2. सन् १९१२ के संव प्रवासी विधेयकके खण्ड ५ (च) और (छ) की व्याख्यासे यही निष्कर्षं निकलता था; देखिए "पत्र : आर० ग्रेगरोवस्कीको ", पृष्ठ २२९ ।
  3. तात्पर्य खण्ड २५ (२) से है।
  4. तात्पर्य खण्ड २८ से है ।