भी इन कागजातकी जाँच करेंगे। कागजातके मालिकोंने जिन प्रमाणोंके बलपर कागजात प्राप्त किये, श्री कजिन्स उनको भी पुनः परखनेका आग्रह कर रहे हैं । दूसरे शब्दोंमें, वे प्राप्त प्रमाणपत्रोंको ही मानने से इनकार करते हैं । यह ठीक वही बात है जो ट्रान्सवालकी सरकारने करनी चाही थी और फिर उसे मुँहकी खानी पड़ी थी । " वही हाल श्री कज़िन्सका भी होगा । जो यहाँ अधिवासके प्रमाणपत्र प्राप्त कर चुके हैं वे निश्चय ही इसके लिए तैयार नहीं होंगे कि उनके कागजात निरर्थक समझे जायें । यदि वे प्रमाणपत्र उन्हींके हैं तो वे उनके बलपर इस देशमें आनेका दावा करेंगे।
यह मामला बिलकुल ऐसा है जिसे कांग्रेसको अपने हाथमें लेना चाहिए और इसमें पल-भरका विलम्ब नहीं करना चाहिए । अब स्थिति असह्य होती जा रही है । हानि केवल गरीब लोगोंको उठानी पड़ रही है। कांग्रेसका अस्तित्व तभी सफल सिद्ध होगा जब वह गरीबोंकी पुकारकी अनसुनी न होने दे। यदि एक भी ईमानदार परन्तु गरीब भारतीय, निवासका अधिकार होते हुए भी, नेटालसे लौटा दिया गया तो इसकी सारी जिम्मेदारी कांग्रेसपर होगी ।
[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, २०-७-१९१२
हमने गत सप्ताह इन स्तम्भोंमें डॉ० म्यूरिसनके नाम अपने जिस पत्रका जिक्र किया था उसके उत्तरमें प्राप्त उनका पत्र हम अन्यत्र प्रकाशित कर रहे हैं। डॉ०
१. सन् १९०३ में लॉर्ड मिलनरने यह माँग की थी कि भारतीय लोग युद्ध-पूर्व कालमें टान्सवालमें अपने निवास तथा अधिवासके अधिकारके प्रमाणके रूपमें बोअर सरकारको दिये तीन पौंडकी रसीद पेश करें। लॉर्ड मिलनरके अनुरोधपर अधिकांश भारतीयोंने ये रसीदें दे दीं और उनके बदले शान्ति-रक्षा अध्यादेशके अन्तर्गत दिये जानेवाले अनुमतिपत्र ले लिये। लॉर्ड मिलनरने इस प्रसंगमें यह आश्वासन दिया था कि "जहाँ एक बार उनका नाम पंजीयन पुस्तक (रजिस्टर) पर आ गया कि अधिवासीके रूपमें उनकी स्थिति कायम हो जायेगी और फिर दुबारा पंजीयन करानेकी जरूरत नहीं होगी और न नया अनुमतिपत्र ही लेना पड़ेगा”; देखिए खण्ड ३, पृष्ठ ३२७-२८ और ३३३ तथा खण्ड ६, पृष्ठ ५०-५१ । सन् १९०५ में एशियाई कानून संशोधन अध्यादेशके अन्तर्गत भारतीयोंसे पुनः यह कहा गया कि वे सिद्ध करें कि उनके पास जो शां० र० अध्या० अनुमतिपत्र या तीन पौंडी डच प्रमाणपत्र हैं वे असली हैं; देखिए खण्ड ५, पृष्ठ ४२२-२३ ।
२. गांधीजी द्वारा डॉ० म्यूरिसनको लिखा यह पत्र तथा इस मामलेसे सम्बन्धित अन्य पत्र भी उपलब्ध नहीं हैं।
३. डर्बन नगरके स्वास्थ्य चिकित्सा अधिकारी डॉ० म्यूरिसनने तपेदिक आयोगके सामने गवाही देते हुए कहा था कि भारतीयोंको झूठ बोलनेकी आदत है । इसपर गांधीजीने २८ जून, १९१२ को डॉ० म्यूरिसनको एक पत्र लिखा, जिसका उत्तर उन्होंने १० जुलाई, १९१२ को भेजा । उत्तरमें डॉ० म्यूरिसनने अपने आरोपका बचाव किया था। उनका खयाल था कि “सार्वजनिक स्वास्थ्य तथा सफाईसे सम्बन्धित मामलों में इस जातिसे कोई सच्चा उत्तर प्राप्त करना असम्भव है । " इंडियन ओपिनियन, २०-७-१९१२ देखिए "डॉ० म्यूरिसनका आरोप, पृष्ठ २७३-७४ ।