द्वारा नामंजूर कर दिये जानेपर तो रेजीडेंट मजिस्टेटके यहाँ अपील की जा सकती है, लेकिन खण्ड ९१ में स्पष्ट व्यवस्था है कि “उक्त परवानोंमें से किसीके परिषद द्वारा नामंजूर हो जानेपर कोई अपील नहीं की जा सकेगी। " संघके जिन प्रान्तों में परवाना निकायों या परिषदोंको इसी प्रकारकी अनियन्त्रित सत्ता प्रदान की गई है या की गई थी, वहाँके ब्रिटिश भारतीयोंके अनुभवको देखते हुए, प्रार्थी मनमानी नामंजूरीके विरुद्ध उचित रूपसे संगठित न्यायिक न्यायाधिकरण ( जुडीशियल ट्रिब्युनल ) में अपील करनेके अधिकारसे स्पष्टतः वंचित किये जानेका बड़ी उत्कटतासे विरोध करता है । साथ ही, मैं यह भी कह दूँ कि ऐसी व्यवस्था प्रजाकी स्वतंत्रतापर कुठाराघात करती है ।
४. साथ ही प्रार्थी इस महती सभाका ध्यान इस तथ्यकी ओर आकर्षित करता है कि चीनी गिरमिटिया मजदूरोंकी वापसीके बाद एशियाई चायघर या भोजनालय रह ही नहीं गये हैं इसलिए अब उनको परवानोंके द्वारा नियन्त्रित करनेका कोई प्रश्न ही नहीं उठता। इस प्रान्तमें रहनेवाले छोटे-से एशियाई समाजकी आवश्यकताएँ खानगी भोजनालयोंसे पूरी हो जाती हैं ।
५. खण्ड ९२ के आधारपर एशियाई मजदूरोंको कामपर रखना निषिद्ध किया जा सकता है और उसके कारण उपयोगी उद्योगों में काम करनेवाले ब्रिटिश भारतीयोंके लिए भारी कठिनाई पैदा हो जायेगी और कुछको तो अपनी जीविकासे भी हाथ धोना पड़ सकता है । प्रार्थीका विनम्र मत है कि इस खण्ड में एशियाइयोंके साथ जो भेदभाव किया गया है उसे हटा दिया जाना चाहिए ।
६. आगे प्रार्थीका निवेदन है कि चालकोंके परवाने देने या न देनेकी परिषदको स्वविवेकके आधारपर जो शक्ति प्रदान की गई है ( खण्ड ९३), उसके निर्णयके विरुद्ध न्यायिक न्यायाधिकरण में अपील करनेका अधिकार दिया जाना चाहिए ।
७. इस प्रान्तमें मौजूद एशियाइयोंके बारेमें दुर्भाग्यपूर्ण पूर्वग्रहको देखते हुए हमारे समाजने विवशतावश राजनीतिक मताधिकारकी माँग तो नहीं की परन्तु खण्ड ११४ ने हमारे समाजके लोगोंको नगरपालिकाकी मतदाता सूचीसे अलग रखकर उनपर जो एक स्पष्ट निर्योग्यता थोप दी है उससे हमारे मनको बड़ी गहरी चोट पहुँची है । यह निर्योग्यता केवल उन गोरे लोगोंपर लागू होती है जो गम्भीर किस्म के अपराधोंके दोषी पाये गये हों ।
प्रार्थी इस महती सभाको स्मरण दिलाना चाहता है कि भारतीय लोग करके रूपमें नगरपालिकाको काफी बड़ी राशि देते हैं और जैसा कि आँकड़ोंसे सहज ही सिद्ध हो जाता है, वे कानूनका सबसे अधिक पालन करनेवालोंमें से हैं। इसलिए प्रार्थीको इसपर बड़ी आपत्ति है कि उनका शुमार सजायाफ्ता गोरोंके साथ किया गया है ।
८. खण्ड १७१ (ख) की व्यवस्थाके अनुसार “ वतनियों, एशियाइयों और सभ्य आचार या उचित वेष-भूषासे होन सभी व्यक्तियों" के लिए ट्रामगाड़ियों का इस्तेमाल निषिद्ध या प्रतिबन्धित किया जा सकता है । एशियाई समाजके लिए यह प्रतिबन्ध अपमानपूर्ण है और असुविधाजनक भी, और प्रार्थीके विनम्र मतसे यह सर्वथा अनावश्यक है ।
९. अन्तमें, प्रार्थी बड़ी उत्कटतासे उपरोक्त कष्टोंकी ओर इस महतो सभाका ध्यान आकर्षित करता है कि ऊपर बताये अनुसार हमारी सहायता करनेके लिए अध्यादेशके प्रारूपका संशोधन किया जाये । इस कृपा और न्यायपूर्ण कार्यके लिए प्रार्थी अपना कर्तव्य मानकर दुआ करता रहेगा ।
अध्यक्ष,
अ० मु० काछलिया
ब्रिटिश भारतीय संघ
[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, १०-६-१९११; और कलोनियल ऑफिस रेकर्डस (सी० ओ० ५५२/२२ ) से भी ।