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पत्र : सर बेंजामिन रॉबर्टसनको


ही हो जाये तो हमने तो उससे भयभीत न होनेका निर्णय कर लिया है। सो चिन्ता तो करनी ही नहीं है। यह देह तो नाशवान ही है। और फिर नष्ट भी उसी दिन होता है जिस दिन उसे होना है। और हमें इलाज आदि भी तदनुसार सूझते है। फिर आत्मा तो अमर है। वैसे यद्यपि हम लोग सम्बन्ध तो शरीरका ही रखते .जान पड़ते हैं तथापि सच्चा सम्बन्ध तो आत्माके प्रति ही होना चाहिए। शरीर ज्यों ही निर्जीव हुआ कि हम उसे घड़ी-भरके लिए भी संजोकर नहीं रखना चाहते, यह तो देखी-भाली बात है। यही सोच-समझकर और बाके शरीरके लिए सारी खटप कर चुकने के बाद मैं तो निश्चिन्त हो गया हूँ और तुम सब भी निश्चिन्त बन जाओ, यही चाहता हूँ। शरीरके इस अवश्यम्भावी परिणामको जानकर हमें साधु-वृत्ति और उदासीनता अपनानी चाहिए। साधुताके मानी स्थूल वैराग्य या संसारमें भटकना नहीं है। इसका सम्बन्ध तो चरित्रकी शुद्धताके साथ है। और उदासीनताका मतलब भी दिलगीरी नहीं बल्कि उसका सही अर्थ है विषयों के प्रति तिरस्कार और संसारके प्रति निर्मोह। बाकी बीमारीसे तुम सभीको यह सीख मिल सके तो यह बा के प्रति तुम्हारी सच्ची भक्तिका प्रतीक होगा।

बापूके आशीर्वाद

[गुजरातीसे]
जीवननु परोढ

२८८. पत्र : सर बेंजामिन रॉबर्ट्सनको

केप टाउन
मार्च ६, १९१४

प्रिय सर बेंजामिन,

आप सहपत्रसे देखेंगे कि सर्लके फैसलेसे जिन परिणामोंके निकलनेकी आशंका थी वे सरकारके इस कदमसे ही सामने आते जा रहे हैं। मूल मामला 'इंडियन ओपिनियन में प्रकाशित हुआ है। परन्तु मैं आपको 'प्रिटोरिया न्यूज़'की कतरन भेज रहा हूँ। मैं सर्वोच्च न्यायालयके फैसलेका इन्तजार कर रहा था। जैसा कि आप देखेंगे, इसकी माँग सरकारकी ओरसे की गई थी। अब सबसे बड़ी अदालतने निचली अदालतके फैसलेको उलट दिया है और हकीकत में जो एक-पत्नी विवाहके बच्चे हैं उन्हें कानूनन अवैध और इसलिए निषिद्ध प्रवासी घोषित कर दिया है। अब ऐसे बच्चों और उन पत्नियोंके बच्चोंको, जिन्हें प्रशासनिक रूपसे संघमें प्रवेश करनेकी अनुमति दी जानी है,

१. यहाँ प्रवासी अधिकारी बनाम मुहम्मद हसनके एक मामलेका उल्लेख है जो ११-२-१९१४ और ११-३-१९१४ के इंडियन ओपिनियनमें प्रकाशित हुआ था। इसमें यह फैसला किया गया था कि बहुविवाह प्रथाके अन्तर्गत संघसे बाहर सम्पन्न विवाहकी सन्तानको १९१३ के कानून २३ खण्ड ५ (छ) की रूसे छूट नहीं मिल सकती, इसलिए वह एक निषिद्ध प्रवासी है।