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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


प्रस्तावित समझौतेमें संरक्षण दिया जायेगा। इस मामलेपर गौर करनेकी कृपा करें और इतना करवा दें कि समझौता होने तक बच्चेका निर्वासन न हो। चूंकि मैं आपको लिख रहा हूँ इसलिए इस मामलेमें सरकारको खुद कुछ नहीं लिखूगा। अपने इस तथा पहले पत्रकी प्रतियाँ भेज सकें तो बड़ा अनुग्रह हो।

आपका,
मो० क० गांधी

मूल अंग्रेजी पत्रकी नकल (एस० एन० ५९४६ और ५९५४) की फोटोनकलसे।

२८९. पत्र : रावजीभाई पटेलको

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फाल्गुन सुदी १० [मार्च ७, १९१४]

प्रिय श्री रावजीभाई,

आपके पत्रको मैंने बार-बार पढा। शंकराचार्यका एक श्लोक है. जिसमें कहा गया है कि समुद्रके किनारे बैठकर कोई घासके तिनकेसे समुद्रका पानी उलीचना चाहे तो इसके लिए उसे कितना धैर्य और समय चाहिए; ठीक उतना ही समय और धैर्य मनको मारने में यानी मोक्षकी प्राप्तिके लिए आवश्यक है। लगता है, आप उतावले हो चले है।

वैसे मृत्युके भयसे तो मैं भी मुक्त नहीं हो पाया हूँ-यद्यपि मैन इस सम्बन्धमें बहुत चिन्तन किया है। पर तो भी मैं अधीर नहीं हुआ हूँ। मैं सतत प्रयत्नमें हूँ और अवश्य ही किसी दिन मुक्त हो जाऊँगा। प्रयत्नका एक भी सुअवसर आप हाथसे न जाने दें। हमारा यही कर्त्तव्य है। परिणामकी इच्छा या प्राप्ति तो प्रभुके अधिकारकी बात है। और इसलिए यह बखेड़ा क्यों? बच्चेको दूध पिलाते समय माता उससे होनेवाले परिणामका विचार नहीं करती, पर तो भी उसका परिणाम तो होता ही है। मृत्युके भयको दूर करने के लिए - मनोविकारोंको नष्ट करने के लिए-प्रयत्न करना चाहिए और प्रसन्नचित्त रहना चाहिए। ऐसा करनेसे वे दूर हो जायेंगे। नहीं तो वह बात चरितार्थ होगी कि बन्दरका स्मरण न करनेके प्रयत्नमें उसका खयाल बना ही रहा।

हम लोग पाप योनिसे उत्पन्न हुए, और पाप कर्मोके परिणामस्वरूप ही देहाधीन हुए हैं। आप यह सारा मल पल-भरमें कैसे धो डालनेकी अपेक्षा करते हैं !

सुगम पड़े उस ढंगसे रहो।
जैसे-तैसे प्रभुको लहो ।

१. इनकी टाइप को हुई प्रतियाँ बादमें सर बेंजामिनने भेजी थीं।