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३२२. पत्र: 'ट्रान्सवाल लीडर' को[१]

[जोहानिसबर्ग]
मई २३, १९१४

[महोदय]

आपने 'लीडर' के आजके अंकमें न्यायमूर्ति मैसनके कुछ उद्गार गवाहीकी विश्वसनीयता', और 'भारतीयोंके विषयमें न्यायाधीशके उद्गार' शीर्षकसे प्रकाशित किये हैं।

मैं न्यायाधीश महोदयके उस वक्तव्यका खण्डन नहीं करना चाहता, जो समयसमयपर उनके सामने प्रस्तुत किये गये तथ्योंके प्रकाशमें सही हो सकता है। किन्तु जनताको यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि जस्टिस मैसनने अपने उद्गार केवल एक वर्गविशेषके भारतीयों तक सीमित रखे थे और उन्हें तो मेरा संघ भी इस आरोपसे मुक्त नहीं करना चाहता। श्री ग्रीनबर्ग यह कल्पना करते प्रतीत होते हैं कि न्यायमूर्ति मैसनने राष्ट्रीय या जातिगत आधारपर भारतीय साक्ष्यकी निन्दा की है; बात ऐसी नहीं है। गैर-भारतीयों में भी कुछ ऐसे वर्ग है जो इसी प्रकार अदालतको गुमराह करनेका प्रयत्न करते हैं। पर मैं नहीं समझता कि आप ऐसी परिस्थितिमें यूरोपीयोंके विषयमें भी न्यायाधीशके उद्गारोंसे इस प्रकारका निष्कर्ष निकालेंगे। कहावत है कि डॉक्टरोंकी भाँति, वकील भी जीवनके बाह्य पक्षको ही देखते हैं और निश्चय ही वे इस देखे हुएके आधारपर ही अपने निष्कर्ष निकालते हैं। यहाँ अपेक्षाकृत किसी कम न्यायप्रिय आदमीको अतिशयोक्ति करनेका प्रबल लोभ हो सकता था; किन्तु न्यायमति मैसनन अपने उद्गारोंको समाजके उसी वर्ग तक सीमित रखा जिसे वह अपराधी मानते थे और उन्होंने सम्पूर्ण भारतीय समाज के विरुद्ध आरोप नहीं लगाया, जैसा कि आपकी रिपोर्टकी कुछेक प्रथम पंक्तियोंसे ध्वनित होता है।

मुझे विश्वास है कि आप इस पत्रको प्रकाशित कर सकेंगे जिससे यदि कोई गलतफहमी फैली हो तो दूर की जा सके।

[आपका आदि]

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, ३-६-१९१४
  1. १. यह पत्र श्री अ० मु० काछलियाके हस्ताक्षरसे ट्रान्सवाल लोडरमें प्रकाशित इस समाचारके जवाबमें भेजा गया था: "कल विटवॉटसरेंड लोकल डिवीजनमें जज और वकीलने भारतीय गवाहोंकी अविश्वसनीयताके बारेमें कुछ कठोर बातें कहीं।..."