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३२३. भाषण : प्रार्थना सभामें

[जोहानिसबर्ग
मई २३, १९१४]

गीताके श्लोकोंको कंठस्थ कर लेने भरसे मैं खुश नहीं हो सकता। मुझे इस बातकी भी चिन्ता नहीं है कि तुम इतिहास पढ़ते हो या नहीं; अथवा गणितके सवाल करते हो या संस्कृत सीखते हो। जरूरी तो यह है कि तुम आत्म-संयम सीखो। यही मैं चाहता हूँ। मैं शायद किसी अन्य मनुष्यकी गुलामी स्वीकार कर लूं पर अपने मनकी गुलामी कभी स्वीकार नहीं कर सकता। मनका गुलाम बन जानेसे बड़ा कोई पाप नहीं है। इसलिए समझदार बनो और अपने दिमागपर अनुशासन करना सीखो; तभी तुम मेरे साथ रह सकोगे। अन्यथा मुझे किसीकी जरूरत नहीं है। और न मुझे यह दम्भ ही है कि मैं तुम्हें या अन्य किसीको सिखा सकता हूँ। मेरे पास तो पहले ही से एक ऐसा विद्यार्थी मौजूद है जिसको सिखाना बहुत कठिन कार्य है। उसे सिखानेपर ही मैं तुम्हारा, भारतका और संसारका कुछ भला कर सकता है और वह विद्यार्थी मैं खुद हूँ; अर्थात् वह है मेरा अपना मन । जो इस तरह अपने शिष्य बन सकते हैं वे ही यहाँ रह सकने योग्य है। वे जो इस प्रकारका जीवन निर्वाह नहीं कर सकते, उनके लिए अच्छा यही है कि वे यहाँ न रहें। उनके लिए यह जगह छोड़ देना ही ठीक होगा। किसी भी कामको अन्धविश्वासके कारण (निरुद्देश्य और यान्त्रिक रूपसे) करना पाप है। मैं ऐसा कुछ भी नहीं चाहता।

[गुजरातीसे]
गांधीजीनी साधना

३२४. भेंट : ई० एम० जॉर्जेससे[१]

प्रिटोरिया
मई २७, १९१४

श्री गांधीने धारा १ के बारेमें बतलाया कि उनके विचारमें इसका महत्व मुख्यतः बानक बनाये रखनेकी दृष्टिसे ही है। उनके खयालसे एक बड़ी संख्यामें भारतीय पुरो

  1. १. गवर्नर जनरल ग्लैडस्टनने मई ३०, १९१४ को उपनिवेश-मन्त्रीके नाम एक खरीता भेजा था, जिसके साथ भारतीय राहत विधेयकके मसविदेकी छपी हुई प्रतियाँ भी थीं। मसविदेमें किये गये कुछ शाब्दिक संशोधनोंकी ओर ध्यान आकर्षित करते हुए गवर्नर-जनरलने खरीतेमें कहा था: “श्री गांधीको नेटालसे बुलाया गया है । गृह-मन्त्रीने बुधवार की सुबह उनको विधेषककी एक ऐसी ही छपी हुई प्रति दे दी थी। श्री गांधीने उसको देखकर बुधवार को ही दोपहर बाद श्री जोर्जससे फिर मुलाकात की थी। मैं समझता हूँ कि कुल मिलाकर वे सन्तुष्ट ही लगते थे। उनकी भेंटका सारांश निम्नलिखित है ।" अन्य कोई विवरण उपलब्ध नहीं है।