पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 13.pdf/११

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
भूमिका

गांधीजीके भारतीय कार्यकालसे सम्बद्ध इस प्रथम खण्डमें १९१५ से लेकर सित- म्बर, १९१७ तक की सामग्री दी गई है। इसका प्रारम्भ गांधीजीके ९ जनवरी, १९१५ को बम्बई बन्दरगाहपर उतरनेके साथ होता है और समाप्ति चम्पारन सत्याग्रहकी इतिके साथ ।

गांधीजीको गोखलेकी सलाह थी कि भारत आकर शीघ्रतामें कोई कार्य आरम्भ न करें और किसी भी सार्वजनिक प्रश्नपर कुछ कहनेसे पहले एक साल तक चुप- चाप देशकी परिस्थितियोंका अध्ययन करें। इस सलाहको मानते हुए गांधीजीने एक साल तक सार्वजनिक प्रश्नोंपर मौनकी नीतिका निर्वाह किया, और १९१५ का लग- भग पूरा वर्ष देशमें घूम-घूमकर नेताओंसे मिलने-जुलने और उनके साथ विचार-विनिमय करनेमें बिताया। उनकी १९१५ की डायरी इस सबका विस्तृत विवरण प्रस्तुत करती है, उसमें हमें महात्मा मुंशीराम (स्वामी श्रद्धानन्द) तथा कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर जैसे महान् व्यक्तियोंसे उनके सम्पर्ककी जानकारी भी प्राप्त होती है।

स्वदेश आनेपर अवसर मिलते ही गांधीजी सबसे पहले सौराष्ट्रमें अपने परिजनोंसे मिले, और तदुपरान्त उन्होंने अपने सहयोगियोंके लिए फीनिक्सके आदर्शको सामने रख- कर एक नये जीवनकी योजना तैयार करनेकी व्यावहारिक समस्याकी ओर ध्यान दिया। कठोर नैतिक अनुशासनके आदर्शको गांधीजी अपने लिए ही नहीं, सार्वजनिक प्रश्नोंको सुलझानेके लिए नैतिक शक्तिके प्रयोगका उनका जो कार्यक्रम था, उसकी सफलताके लिए भी अपरिहार्य मानते थे। इस सबको ध्यानमें रखते हुए मई, १९१५ उन्होंने अहमदाबादके पास कोचरब नामक स्थानपर एक आश्रम की स्थापना की। उद्देश्य यह था कि इसे राष्ट्रके आत्मत्यागी सेवकोंके लिए प्रशिक्षण केन्द्र बनाया जाये। उन्होंने कुछ नियम निर्धारित कर दिये, जिनके अधीन आश्रमवासियोंको अपना जीवन व्यतीत करना था। ये नियम आश्रमके संविधानके मसविदे ( पृष्ठ ९५-१०१ ) में दिये गये हैं। इसमें जीवनके सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक एवं शैक्षणिक आदि विभिन्न पहलुओंसे सम्बन्धित गांधीजीका समस्त कार्यक्रम क्रमबद्ध ढंगसे दिया गया है।

आश्रमकी स्थापना करनेके बाद गांधीजीका दूसरा कार्य था जनताको अपने आदर्शों- की, सत्याग्रहके दर्शन-पक्ष और भारतकी विशिष्ट समस्याओंके सन्दर्भमें उसके प्रयोगकी शिक्षा देना। अपने इस कार्यके प्रति उनकी वृत्ति और इसके सम्पादनकी उनकी रीति एक सच्चे जनसेवी पत्रकारकी थी, न कि उस दार्शनिककी जो व्यवहारकी दुनियासे निर्लिप्त सैद्धान्तिक विचारोंके महल खड़े करता है। क्या ऊँच और क्या नीच, वे सभी वर्गोंके लोगोंसे मिले और जब-जैसा प्रसंग हुआ, उन्होंने उपयुक्तसे उपयुक्त ढंगसे संभीके सामने अपने विचार प्रस्तुत किये। एक विचार, जो वे अपने मनमें बहुत दिनोंसे सँजोये हुए थे, यह था कि भारतीयोंको आपसी व्यवहारमें अंग्रेजीके बदले देशी भाषाओंका प्रयोग करना चाहिए। स्वदेश आनेके बाद दूसरे ही दिन अपने सम्मानमें आयोजित