पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 13.pdf/१२

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गुजरातियोंकी एक सभामें उन्होंने अपने इस चिर-पोषित विचारको कार्यरूप दिया । इसके बाद उन्होंने जो भी कहा, जो भी लिखा, सबमें मुख्य स्वर प्रायः एक ही था--अर्थात् राष्ट्रका सार्वजनिक जीवन स्वस्थ और सुव्यवस्थित हो। इस खण्डमें संगृहीत उनकी वाणीके कतिपय उत्तम उदाहरणोंके रूपमें उनके काशी हिन्दू विश्वविद्यालयमें दिये गये बहु-चर्चित भाषण (पृष्ठ २१२-१८) और मद्रासमें स्वदेशीपर (पृष्ठ २२१-२७) तथा इलाहाबादमें आर्थिक बनाम नैतिक प्रगतिपर (पृष्ठ ३११-१९) दिये गये उनके प्रवचनोंका उल्लेख किया जा सकता है। ये प्रवचन उन्होंने बड़े मनोयोगके साथ तैयार किये थे ।

किन्तु, इस कालमें गांधीजीने जिस बातकी ओर सबसे अधिक ध्यान दिया वह थी शिक्षाकी समस्या | दरअसल, इस खण्डमें उनका व्यक्तित्व मुख्यतः एक शिक्षा शास्त्रीके रूपमें ही उभरा है। उन्होंने देखा कि अगर भारतको अपना असली रूप, अपनी रचना- त्मक शक्ति अक्षुण्ण रखनी है तो शिक्षा पद्धतिमें आमूल परिवर्तन करना होगा -- उसे ऐसा रूप देना होगा जिसमें आजकी तरह किताबी ज्ञानपर अनावश्यक जोर न दिया जाये और साथ ही अंग्रेजी भाषाको, जिसने केन्द्रस्थ स्थानको हथिया लिया है, उससे अपदस्थ करना होगा। उन्होंने चम्पारनसे अहमदाबाद स्थित अपने मित्रोंको जो पत्र लिखे उनमें और राष्ट्रीय स्कूलकी नियमावलीमें (पृष्ठ ३३४-३६) उनके शिक्षा- सम्बन्धी विचार किंचित् विस्तारसे मिलते हैं, लेकिन मोटे तौरपर तो इस विषयकी चर्चा उन्होंने विद्यार्थियोंके सामने हर अवसरपर की।

गांधीजी दक्षिण आफ्रिकासे आ तो गये थे, लेकिन उस देशकी चिन्ता उनके मनसे कभी दूर नहीं हुई थी। उन्होंने जे० बी० पेटिटको जो पत्र (पृष्ठ ११०-१६) लिखा, उसमें सत्याग्रह-निधिका पूरा हिसाब देनेके साथ-साथ दक्षिण आफ्रिकाके सत्याग्रहपर भी एक विहंगम दृष्टि डाली है। उसकी सीमाएँ और उपलब्धियाँ तथा १९१४ के समझौते से क्या-कुछ प्राप्त हुआ और क्या-कुछ प्राप्त करना शेष रह गया है, यह सब उसमें बताया गया है। वेस्ट, कुमारी इलेसिन और लाज़रसको लिखे उनके पत्रोंसे भी प्रकट होता है कि वहाँके लोगोंके कल्याणकी चिन्ता उन्हें बराबर बनी रहती थी। लेकिन, दक्षिण आफ्रि- काकी जो समस्या उन्हें सबसे अधिक परेशान किये रही वह थी गिरमिट-प्रथा । इसे वे एक ऐसी बुराई मानते थे जिसमें सुधार तो हो ही नहीं सकते थे --उसे समूल नष्ट कर देना ही उसका एकमात्र उपचार था। इस प्रथाके विरुद्ध दिसम्बर, १९१६ में लखनऊ कांग्रेसमें जो प्रस्ताव पास किया गया उसके बाद उन्होंने इसपर और भी तीव्रतासे प्रहार करना आरम्भ कर दिया--अहमदाबाद, बम्बई, सूरत, कराची, कल- कत्ता आदि नगरोंमें आयोजित एकके-बाद-एक सभामें उन्होंने माँग की कि ३१ मई, १९१७ से पूर्व भारतीयोंको प्रवासार्थ देशसे बाहर भेजना बन्द किया जाये। और अन्ततः वाइसरॉयने यह माँग स्वीकार कर ली।

आन्तरिक राजनीतिके क्षेत्रमें ब्रिटिश राजनयिकोंकी न्याय-भावना और उदारतामें उनका विश्वास अक्षुण्ण बना रहा; वे मानते रहे कि उन्हें अपना कर्त्तव्य-बोध करानेके लिए इतना ही आवश्यक है कि उनपर जनमतका पूरा दबाव डाला जाये । आतंकवादियों- की कार्रवाईकी स्पष्ट शब्दोंमें भर्त्सना करनेका जितना बड़ा कारण उनका नैतिक विश्वास