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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय
३. स्पर्श-भावना व्रत

रूढ़िके अनुसार हिन्दू धर्ममें ढेड़, भंगी आदि जातियाँ अन्त्यज, पंचम और अछूत कही जाती हैं और अस्पृश्य मानी जाती हैं। उनसे छू जानेपर अन्य जातियोंके हिन्दू अपनेको अपवित्र मानते हैं। उनसे अनजानमें छू जाना भी पाप समझते हैं। आश्रमके संस्थापकों की मान्यता है कि यह हिन्दू धर्मपर कलंक है। संस्थापक स्वयं कट्टर हिन्दू हैं; परन्तु वे समझते हैं कि जबतक हिन्दू लोग किसी भी जातिको अछूत मानते हैं तबतक वे पापका ही संचय करते हैं। इस तरहके व्यवहारके अनेक भयंकर परिणाम हुए हैं। इस पापसे मुक्ति पानेके लिए आश्रममें अस्पर्श जातिके सम्बन्ध में स्पर्श-भावना-व्रतका पालन होता है। इस नियमावलीकी तीसरी आवृत्ति प्रकाशित करते समय आश्रममें एक ढेड़ परिवार भी रहता था और अब भी रहता है। यह परिवार ठीक उसी तरह आश्रम में रहता है जैसे अन्य आश्रमवासी । इस व्रतमें भोजन व्यवहारका समावे नहीं होता । केवल अस्पृश्यता-दोषका निवारण ही अभीष्ट है।

वर्णाश्रम

आश्रम वर्णाश्रम-धर्मका पालन नहीं किया जाता । जहाँ व्यवस्थापकोंको ही छात्रों के माँ-बापोंका स्थान लेना होता है, और इसी तरह जहाँ आजन्म ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि व्रतोंका पालन करना होता है वहाँ वर्णाश्रमके पालनकी गुंजाइश नहीं रहती। आश्रमवासियोंकी अवस्था एक प्रकारसे संन्यासियोंकी अवस्था है। अतएव उन्हें वर्णाश्रम- धर्मके पालनकी आवश्यकता नहीं रहती। तथापि यह आश्रम वर्णाश्रम-धर्मको पूर्णतया माननेवाला है। जातिबन्धनसे देशको हानि पहुँची है ऐसा नहीं लगता; उलटे अनेक लाभ-ही हुए जान पड़ते हैं। साथ-साथ भोजन करनेसे भ्रातृभावकी तनिक भी वृद्धि होती है, यह माननेका कोई कारण नहीं है। वर्णाश्रम व्यवस्था या जाति-बन्धनको आश्रमकी किसी प्रवृत्तिसे किसी प्रकारकी हानि न पहुँचे, इसके लिए यह निश्चित किया गया है कि यदि आश्रमवासी बाहर जानेपर अपना भोजन अपने हाथसे न पका सकें तो वे फलोंपर निर्वाह करनेके लिए बाध्य हैं।

स्वभाषा

व्यवस्थापकोंका विश्वास है कि कोई राष्ट्र अथवा समाज स्वभाषाका परित्याग करके उन्नति नहीं कर सकता। इसलिए सभी अपनी-अपनी भाषाका प्रयोग करेंगे। वे अपने अन्य भारतीय बन्धुओंसे घनिष्ट सम्बन्ध रखना चाहते हैं, इस कारण वे प्रमुख देशी भाषाओं और उन सबकी जननी संस्कृतका अध्ययन करेंगे ।

शारीरिक श्रम

व्यवस्थापकोंका विश्वास है कि प्रकृतिने शारीरिक श्रम करना मनुष्यका कर्त्तव्य ठहराया है। मनुष्य-जातिकी आजीविकाका साधन शारीरिक श्रम ही है। उसे अपनी मानसिक और आत्मिक शक्तियोंका उपयोग तो परोपकारार्थ ही करना चाहिए। दुनियाकी आबादीका सर्वाधिक भाग खेतीसे ही निर्वाह करता है। इसलिए व्यवस्थापक स्वयं अपना

१ यह अनुच्छेद और वर्णाश्रम-सम्बन्धी अनुच्छेद तीसरी आवृत्तिमें जोड़े गये थे ।