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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

था। सामग्री तो उनके भाषणों में भरपूर थी; लेकिन उनके भाषणोंने हमारा मन नहीं पकड़ा। कहा जाता है कि आखिरकार भारतके अंग्रेजीदाँ ही देशका नेतृत्व कर रहे हैं और वे ही राष्ट्रके लिए सब कुछ कर रहे हैं। अगर इससे विपरीत बात होती तो वह और भी भयानक होती; क्योंकि हमें शिक्षाके नामपर केवल अंग्रेजी शिक्षा ही तो मिलती है। शिक्षाका कुछ-न-कुछ परिणाम तो निकलता ही है। किन्तु मान लीजिए हमने पिछले पचास वर्षोंमें अपनी-अपनी भाषाओंके जरिए शिक्षा पाई होती; तो हम आज किस स्थितिमें होते? तो आज भारत स्वतंत्र होता; तब हमारे पढ़े-लिखे लोग अपने ही देशमें विदेशियोंकी तरह अजनबी न होते बल्कि देशके हृदयको छूनेवाली वाणी बोलते; वे गरीबसे गरीब लोगोंके बीच काम करते और पचास वर्षोंकी उनकी उपलब्धि पूरे देशकी विरासत होती। (तालियाँ) आज तो हमारी अर्धांगिनियाँ भी हमारे श्रेष्ठ विचारोंकी भागीदार नहीं हैं। प्रो० बसु[१] और प्रो० राय[२]तथा उनके शानदार आविष्कारोंको ही लीजिए। क्या यह लज्जाकी बात नहीं है कि जनताका उनसे कुछ लेना-देना नहीं है?

अब हम दूसरी बात लें।

कांग्रेसने स्वराज्यके बारेमें एक प्रस्ताव पास किया है। यों तो मुझे विश्वास है कि अखिल भारतीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग अपना कर्त्तव्य करेंगी और कुछ-न-कुछ ठोस सुझावोंके साथ सामने आयेंगी; किन्तु जहाँतक मेरा सवाल है में स्पष्ट रूपसे यह बात स्वीकार करना चाहता हूँ कि मुझे इस बातमें उतनी दिलचस्पी नहीं है कि वे क्या कुछ कर पाती हैं, जितनी इस बातमें है कि विद्यार्थी-जगत् क्या करता है या जनता क्या करती है। कोई भी कागजी कार्रवाई हमें स्वराज्य नहीं दे सकती। धुआँ- धार भाषण हमें स्वराज्यके योग्य नहीं बना सकते। वह तो हमारा अपना आचरण है जो हमें उसके योग्य बनायेगा। (तालियाँ)। सवाल यह है कि हम अपनेपर किस प्रकार राज्य करना चाहते हैं? मैं आज भाषण नहीं देना चाहता, श्रव्यरूपमें सोचना चाहता हूँ। यदि आज आपको ऐसा लगे कि मैं असंयत होकर बोल रहा हूँ तो कृपया मानिए कि कोई आदमी जोर-जोरसे बोलता हुआ सोच रहा है और वही आप सुन पा रहे हैं। और यदि आपको ऐसा जान पड़े कि मैं शिष्टाचारकी सीमाका उल्लंघन कर रहा हूँ तो कृपया उस स्वच्छन्दताके लिए आप मुझे क्षमा करेंगे। कल शाम में विश्वनाथके दर्शनोंके लिए गया था। उन गलियोंमें चलते हुए मेरे मनमें खयाल आया कि यदि कोई अजनबी एकाएक ऊपरसे इस मन्दिरपर उतर पड़े और यदि उसे हम हिन्दुओंके बारेमें विचार करना पड़े तो क्या हमारे बारेमें कोई छोटी राय बना लेना उसके लिए स्वाभाविक न होगा?क्या यह महान् मन्दिर हमारे अपने आचरणकी ओर उँगली नहीं उठाता? मैं यह बात एक हिन्दूकी तरह बड़े दर्दके साथ कह रहा हूँ। क्या यह कोई ठीक बात है कि हमारे पवित्र मन्दिरके आसपासकी गलियाँ इतनी गन्दी हों? उसके आसपास जो घर बने हुए हैं वे बे-सिलसिले और चाहे-जैसे हों। गलियाँ टेढ़ी-

 
  1. १. सर जे० सी० बोस, एफ० आर० एस०; वनस्पतिशास्त्री।
  2. २. सर पी० सी० रॉय, रसायनशास्त्री।