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भाषण: बनारस हिन्दू विश्वविद्यालयमें

मेढ़ी और सँकरी हों। अगर हमारे मन्दिर भी कुशादगी और सफाईके नमूने न हों तो हमारा स्वराज्य कैसा होगा? चाहे खुशीसे चाहे लाचारीसे अंग्रेजोंका बोरिया-बसना बँधते ही क्या हमारे मन्दिर पवित्रता, स्वच्छता और शान्तिके धाम बन जायेंगे?

मैं कांग्रेसके अध्यक्षसे इस बातमें सहमत हूँ कि स्वराज्यकी बात सोचनेके पहले हमें बड़ी मशक्कत करनी पड़ेगी। हमारे यहाँ हर शहरके दो हिस्से होते हैं; बस्ती खास और छावनी। बस्तीको अक्सर एक बदबूदार गन्दी कोठरी समझिए। यह ठीक है कि हम शहरोंकी जिन्दगीके आदी नहीं हैं। लेकिन जब शहरी जिन्दगीकी हमें जरूरत ही है तो उसे हम अपने लापरवाह ग्राम्य-जीवनका प्रतिबिम्ब तो नहीं बना सकते। बम्बईकी जिन गलियोंमें भारतीय रहते हैं वहाँ राहगीरको यह धुकधुकी लगी ही रहती है कि कहीं कोई ऊपरकी मंजिलसे उनपर पीक न छोड़ दे। यह बड़ी विचारणीय परिस्थिति है। में काफी रेल-यात्रा करता हूँ। तीसरे दर्जेके यात्रीकी तकलीफोंपर ध्यान जाता है। किन्तु इन सभी तकलीफोंकी जिम्मेदारी रेलवेके अधिकारियोंके ऊपर नहीं मढ़ी जा सकती। यह जानते हुए भी कि डिब्बेका फर्श अकसर सोनेके काममें बरता जाता है हम उसपर जहाँ-तहाँ थूकते रहते हैं। हम जरा भी नहीं सोचते कि हमें वहाँ क्या फेंकना चाहिए, क्या नहीं; और नतीजा यह होता है कि सारा डिब्बा गन्दगी का अवर्णनीय नमूना बन जाता है। जिन्हें कुछ ऊँचे दर्जेका माना जाता है, वे अपनेसे कम भाग्यशाली अपने भाइयोंके साथ डाँट-डपटका व्यवहार करते हैं। विद्यार्थी वर्गको भी मैंने ऐसा करते पाया है। वे भी [गरीब] सह्यात्रियोंके साथ [कुछ अच्छा] व्यवहार नहीं करते। वे अंग्रेजी बोल सकते हैं और नारफॉक जाकिटें पहने होते हैं और इसलिए वे अधिकार जताकर डिब्बेमें घुस जाते हैं और बैठनेकी जगह ले लेते हैं। मैंने हर अँधेरे कोनेको मशाल जलाकर देखा है; और चूँकि आपने मुझे बातचीत करनेकी यह सुविधा दी है, में अपना मन आपके सामने खोल रहा हूँ। स्वराज्यकी दिशामें बढ़नेके लिए हमें बिलाशक ये सारी बातें सुधारनी चाहिए। अब मैं आपको दूसरी जगह ले चलता हूँ। जिन महाराजा महोदयनें[१] कलकी हमारी बैठककी अध्यक्षता की थी। उन्होंने भारतकी गरीबीकी चर्चा की। दूसरे वक्ताओंने भी इस बातपर बड़ा जोर दिया। किन्तु जिस शामियानेमें वाइसरॉय द्वारा शिलान्यास-समारोह हो रहा था वहाँ हमने क्या देखा। एक ऐसा शानदार प्रदर्शन, जड़ाऊ गहनोंकी ऐसी प्रदर्शनी, जिसे देखकर पेरिससे आनेवाले किसी जौहरीकी आँखें भी चौंधिया जातीं। जब में गहनोंसे लदे हुए उन अमीर-उमरावोंको भारतके लाखों गरीब आदमियोंसे मिलाता हूँ तो मुझे लगता है कि मैं इन अमीरोंसे कहूँ, “जबतक आप अपने ये जेवरात नहीं उतार देते और उन्हें गरीबोंकी धरोहर मानकर नहीं चलते तबतक भारतका कल्याण नहीं होता। (हर्षध्वनि और तालियाँ) मुझे यकीन है कि सम्राट् अथवा लॉर्ड हार्डिज़ सम्राट्के प्रति वास्तविक राजभक्ति दिखानेके लिए किसीका गहनोंके सन्दूक उलटकर सिरसे पाँवतक सजकर आना जरूरी नहीं समझते। अगर आप चाहें तो में जानकी

  1. १. दरभंगाके सर रामेश्वर सिंह (१८६०-१९२९); इन्होंने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालयको स्थापनामें मालवीयजीकी सहायता की थी।