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भाषण: आश्रमके व्रतोंपर

ही अनुशासित रखना है। इस परिभाषाको सम्यक् सिद्ध करनेके लिए मैंने प्रह्लादके विश्रुत दृष्टान्तका सहारा लिया है। सत्यके लिए वह अपने पिताका भी विरोध करनेमें नहीं हिचका; साथ ही उसने ईंटका जवाब पत्थरसे देकर अपनी रक्षा नहीं की; बल्कि वह जिसे सत्य समझता था उसकी रक्षामें पिताके प्रहारोंका अथवा पिताकी आज्ञासे दूसरोंके द्वारा किये गये प्रहारोंका प्रत्युत्तर दिये बिना, मरनेको तैयार हो गया। उसने किसी भी प्रकारका प्रत्याक्रमण नहीं किया, इतना ही नहीं, उसपर जो-जो अत्या- चार किये गये उन सभीको उसने हँसते-हँसते स्वीकार किया; फल यह हुआ कि अन्तमें सत्यकी विजय हुई। प्रह्लादने अत्याचारोंको कुछ इसलिए शिरोधार्य नहीं किया था कि उसे अपने जीते-जी किसी दिन सत्यके सिद्धान्तकी अमोघता सिद्ध करनेका अवसर प्राप्त हो जायेगा। ऐसा हुआ जरूर; किन्तु यदि इन अत्याचारोंको सहन करते हुए उसकी मृत्यु भी हो जाती तो भी वह सत्यसे विचलित नहीं होता। मैं सत्यका ऐसा ही व्रती होना चाहता हूँ। कल एक घटनापर मेरा ध्यान गया। वैसे वह घटना छोटी ही है। किन्तु इन छोटी-छोटी बातोंसे हवाका रुख मालूम हो जाता है। घटना यों हुई――मेरे एक मित्र मुझसे एकान्तमें बातचीत करना चाहते थे――और हमारी एकान्तमें गोपनीय बातचीत हो रही थी। इतनेमें एक अन्य मित्र आ पहुँचे और उन्होंने विनम्रता-पूर्वक पूछा, ‘मैं खलल तो नहीं डाल रहा हूँ?’ जिनसे बातें हो रही थीं उन मित्र महारायने कहा, ‘नहीं, यहाँ गोपनीय कुछ नहीं है।’ मुझे थोड़ा अचम्भा हुआ। क्योंकि उन्होंने मुझे एकान्तमें खींचा था और मुझे मालूम था कि इन मित्रके लेखे तो बातचीत अवश्य गोपनीय थी। किन्तु उन्होंने तत्काल विनम्रताके कारण, जिसे मैं फाजिल विनम्रता कहूँगा, यह कह दिया कि कोई गोपनीय बात नहीं हो रही है, आप आ सकते हैं। मैं आपसे कहना चाहता हूँ कि यह मेरी सत्यकी परिभाषामें नहीं बैठता। मेरा खयाल है कि अत्यन्त विनयपूर्वक किन्तु फिर भी साफ तौरपर उन्हें यह कहना था: “जी हाँ, फिलहाल जैसा कि आप कह रहे हैं, आनेसे खलल होगा।” यदि वे सज्जन होते तो उन्हें इस कथनसे कोई नाराजी न होती। और जबतक अन्यथा सिद्ध न हो जाये तबतक सभीको सज्जन मानकर ही चलना चाहिए। इसपर आप मुझसे कह सकते हैं कि इस घटनासे तो आखिर राष्ट्रका सौजन्य प्रकट होता है। मेरी समझमें यह आवश्यकतासे अधिक सौजन्य है। यदि हम केवल नम्रतावश ऐसा करते रहें तो राष्ट्र पाखण्डियोंसे भर जायेगा। यहाँ मुझे एक अंग्रेज मित्रसे अपनी बातचीतकी याद आ गई। उनका तब हमारे देशसे बहुत परिचय नहीं हो पाया था। वे एक कॉलेजके प्रिंसिपल हैं और भारतमें अनेक वर्षोंसे हैं। हम विभिन्न बातोंपर परस्पर विचार-विनिमय कर रहे थे। उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या आप यह मानते हैं कि मनमें ‘ना’ हो तो भी भारतीयोंको ज्यादातर अंग्रेज़ोंकी तरह 'ना' कहनेका साहस नहीं होता। और मुझे कहना पड़ा कि “हाँ, आपका कहना ठीक है।” जिस आदमीसे हम बात कर रहे हैं उसकी भावनाका खयाल करके हम हिम्मतके साथ साफ तौरपर ‘ना’ कहनेमें हिचकते हैं। आश्रममें नियम रखा गया है कि परिणामकी चिन्ता किये बिना यदि हमारे मनमें ‘ना’ है तो हमें ‘ना’ ही कहना चाहिए। यह हुआ पहला नियम। अब हम अहिंसाके सिद्धान्तके बारेमें कहेंगे।