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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

 

अहिंसाका व्रत

अहिंसाका शाब्दिक अर्थ होता है न“ मारना”। किन्तु मेरे लेखे उसका अर्थ बहुत व्यापक है। यदि मैं उसका अर्थ केवल “न मारना” करता तो यह शब्द मुझे जिन ऊँचे, अनन्त ऊँचे मनोमय लोकों तक ले जाता है उन तक मैं कभी न पहुँच पाता। ‘अहिंसा’ का वास्तवमें यह अर्थ है कि आप किसीका मन न दुखायें, जो अपनेको आपका शत्रु मानता है उसके बारेमें भी कोई अनुदार विचार मनमें न रखें। इस बातमें जो सावधानी है कृपया उसपर ध्यान दें। मैंने ‘आप जिसे अपना शत्रु समझते हैं’, नहीं कहा; ‘जो आपको अपना शत्रु समझता है’ कहा है। क्योंकि जो व्यक्ति अहिंसाके सिद्धान्तका पालन करता है उसके लिए तो किसीको अपना शत्रु माननेकी गुंजाइश ही नहीं है――वह शत्रुका अस्तित्व मानता ही नहीं है। किन्तु ऐसे लोग हो सकते हैं जो उसे अपना शत्रु मानें; इसमें तो उसका कोई वश नहीं है। इसलिए इस बात पर जोर दिया गया है कि ऐसे व्यक्तियोंके प्रति भी कोई दुर्भावना न रखी जाये। यदि हम घूँसेका जवाब घूँसेसे देते हैं तो हम अहिंसाके सिद्धान्तसे च्युत हो जाते हैं। मैं तो इससे भी आगे आता हूँ। यदि हम किसी मित्र अथवा तथाकथित किसी शत्रुके किसी कामपर आक्रोश भी करते हैं तो इस सिद्धान्तपर खरे नहीं उतरते। किन्तु जब मैं यह कहता हूँ कि हमें आक्रोश नहीं करना चाहिए तो उसका यह अर्थ नहीं है कि हमें [किसी गलत बातके आगे] सिर झुकाकर रह जाना चाहिए। आक्रोश न करनेसे मेरा तात्पर्य यह है कि हम ऐसी इच्छा न करें कि हमारे अथवा किसी औरके कामके जरिए या कहिए ईश्वरीय सत्ताके द्वारा भी शत्रुको नुकसान पहुँचे या वह हमारे मार्गसे हटा दिया जाये। यदि ऐसा खयाल भी हमारे मनमें हो तो हम अहिंसाके सिद्धान्तसे हटते हैं। जो आश्रममें प्रवेश लेना चाहते हैं उन्हें यह अर्थ स्वीकारना पड़ता है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं नहीं है कि हम इस सिद्धान्तका पूर्ण रूपसे पालन कर लेते हैं। यह आदर्श है; हमें इस तक पहुँचना है; यह ऐसा आदर्श है जिसे यदि हममें वैसी शक्ति हो तो हमें इसी क्षण प्राप्त करना है। किन्तु यह रेखागणितका कोई साध्य नहीं है जिसे हम रट लें। न यह गणितके कठिन प्रश्न हल करना है――यह इनको हल करनेसे कई गुनी कठिन बात है। गणितके कठिन प्रश्नोंको हल करनेमें आपमें से अनेक आधी-आधी रात तक जागे हैं। किन्तु इस आदर्शको अपने जीवन में उतारनेके लिए इतनेसे काम नहीं चलेगा आपको अनेक रातें जागकर काटनी होंगी, मनोमंथन और अन्तर्वेदनाके जाने कितने प्रसंगोंसे गुजरना होगा; और तब कहीं आप इस आदर्श तक, या यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि इस आदर्शके समीप, पहुँच सकेंगे। इस सिद्धान्तपर मैं इससे अधिक कुछ नहीं कहूँगा कि जो व्यक्ति इस सिद्धान्तकी प्रभावकारी शक्तिमें विश्वास रखता है, वह अपनी मंजिलके एकदम समीप आते-आते समस्त संसारको अपने चरणोंके समीप खड़ा पायेगा। यह नहीं कि वह सारे संसारको अपने पाँवोंपर पड़ा हुआ देखना चाहता है, किन्तु यह फल है अवश्यभावी। यदि आप अपना प्रेम, अपनी अहिंसावृत्ति, इस प्रकार व्यक्त करें कि उसकी आपके कथित शत्रुपर अमिट छाप पड़ सके तो वह भी प्रेमका बदला प्रेमसे देगा। इसीसे दूसरा विचार यह निकलता है कि इस सिद्धान्तमें संगठित रूपसे