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भाषण: आश्रमके व्रतोंपर

की गई हिंसाकी, हत्याओंकी, फिर वे लुक-छिपकर नहीं, दिन-दहाड़े ही क्यों न की जायें, गुंजाइश नहीं है। और अपने देशके लिए अथवा अपने प्रिय आश्रितोंके मानकी रक्षाके लिए भी इसके अन्तर्गत किसी तरहकी हिंसाका कोई स्थान नहीं है। ऐसी मान-रक्षा कोई मान-रक्षा भी नहीं है। अहिंसाका यह सिद्धान्त कहता है कि जो व्यक्ति ऐसा अनाचार करता है, हम अपने आपको उसके हाथोंमें सौंपकर अपने आश्रितोंके मानकी रक्षा करें। और इसके लिए हाथा-पाईसे कहीं अधिक शारीरिक और मानसिक साहसकी जरूरत है। सम्भव है आपमें कुछ शारीरिक शक्ति हो――साहस में नहीं कहूँगा――और आप उस शक्तिका उपयोग भी करें। किन्तु उस शक्तिके चुक जानेपर क्या होता? सामनेवाला व्यक्ति क्रोध तथा आवेशसे भरा होता है, उसकी हिंसाका मुकाबला हिंसा द्वारा करके आप उसका रोष और अधिक बढ़ा देते हैं; वहआपको मौतके घाट उतारकर आपके आश्रितोंपर टूट पड़ता है और शेष क्रोध इस हिंसाका मुकाबला हिंसा द्वारा करके आप उसका रोष और अधिक बढ़ा देते हैं; वह आपको मौतके घाट उतारकर आपके आश्रितोंपर टूट पड़ता है और शेष क्रोध इस प्रकार शान्त करता है। किन्तु यदि आप प्रत्याक्रमण न करें, अपने आश्रितों और प्रतिद्वन्द्वीके बीच दृढ़तासे खड़े रहें, वह जो वार करता है, उसका प्रत्युत्तर दिये बिना उन्हें सहते रहें तो क्या होगा? मैं निश्चयपूर्वक कहता हूँ कि उसकी सारी हिंसा आपपर बरस कर चुक जायेगी और आपके आश्रित अक्षत रहेंगे। जीवनकी इस पद्धतिमें देशभक्तिकी वह कल्पना भी नहीं है जिसके बलपर आज यूरोपमें होनेवाले युद्धोंका समर्थन किया जाता। फिर आता है――

ब्रह्मचर्य व्रत

जो लोग राष्ट्रकी सेवा करना चाहते हैं या जो धार्मिक जीवनकी सच्ची झाँकी देखना चाहते हैं वे विवाहित हों या अविवाहित, उन्हें संयमका जीवन बिताना चाहिए। विवाह केवल एक स्त्री और एक पुरुषको पास-पास लाता है और वे विशिष्ट प्रकारसे जन्म-जन्मान्तरोंके लिए कभी न बिछुड़नेवाले मित्र बन जाते हैं; किन्तु मेरे खयालसे विवाह सम्बन्धी हमारी धारणामें वासनाएँ हों ही यह जरूरी नहीं है। कुछ भी हो आश्रममें आनेवालोंसे यही कहा जाता है। मैं इसपर अधिक नहीं कहूँगा। इसके बाद है――

अस्वाद व्रत

अपनी पशु-प्रवृत्तियोंको सुगमतासे वशमें करनेकी अभिलाषा रखनेवाला व्यक्ति अपनी स्वादेन्द्रियपर काबू पा ले तो ऐसा कर सकता है। मेरी समझमें यह बहुत ही कठिन व्रत है। मैं अभी विक्टोरिया होस्टल देखकर आ रहा हूँ। मैंने वहाँ देखा――देखकर दुःख होना था, किन्तु अब इसकी आदत पड़ गई है इसलिए दुःख तो नहीं हुआ कि वहाँ बहुत-से रसोई-घर हैं; जातिभेदके कारण नहीं, स्वाद-भेदके कारण। जो व्यक्ति देशके जिस भागसे आया है उसके लिए इनमें उसी अंचलमें प्रचलित मसालोंको उसी परिमाणमें डालकर भोजन बनानेकी व्यवस्था है। और इसलिए केवल ब्राह्मणोंके भी अलग-अलग भोजनालय और रसोई-घर हैं――जिनमें विभिन्न समुदायोंकी बारीक रुचियोंके अनुकूल भोजन परोसा जाता है――आप सोचें, यह जीभपर अधिकार न होकर उसकी दासता है। मैं कहना चाहता हूँ कि यदि हम अपना मन इस आदतसे