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भाषण: आश्रमके व्रतोंपर

अंग्रेजी भाषामें निष्णात तो हो ही नहीं पाते, कुछ अपवादोंको छोड़ दें तो यह हमारे लिए अभीतक सम्भव नहीं हुआ है। हम अपने मनकी बात जितनी स्पष्टतासे अपनी मातृभाषामें व्यक्त कर सकते हैं उस तरह अंग्रेजीमें नहीं कर सकते। भला हमने बचपनमें जो सीखा है उसे स्मृतिसे पोंछ डालना सम्भव कैसे होगा? किन्तु जब हम विदेशी भाषाके माध्यमसे अपना प्रौढ़ जीवन-जैसा कि हम उसे कहा करते हैं;――शुरू करते हैं तब सचमुच हम यही करते हैं। इससे हमारे जीवनमें दरार पड़ जाती है; इसका हमें बहुत-बड़ा मूल्य चुकाना पड़ेगा। अब आप समझ जायेंगे कि शिक्षण और अस्पृश्यतामें क्या सम्बन्ध है। शिक्षणके व्यापक होते जानेके बावजूद आज भी अस्पृश्यताकी भावना जैसीकी-तैसी बनी हुई है। शिक्षणके कारण हमने इस पापकी भयानकताको देख लिया है किन्तु हम भयभीत भी हैं और इसलिए इस विचारको हम अपने घरोंमें नहीं ले जा पा रहे हैं। हमें अपने कुटुम्बियों तथा कुटुम्बकी परम्पराके प्रति एक अन्ध श्रद्धा है। आप कहते हैं: “यदि कहूँ कि अब कमसे-कम में इस पापका भागी नहीं रहना चाहता तो मेरे माता-पिता देह छोड़ देंगे।” मेरा कहना है कि प्रह्लादने कभी यह नहीं सोचा कि अगर वह विष्णुके नामके पवित्र वर्णोंका उच्चारण करेगा तो उसके पिता देह छोड़ देंगे। बल्कि उसने तो सारा घर, इस कोनेसे उस कोने तक, पिताजीकी पवित्र उपस्थितिमें भी उस नामके भजनसे गुँजा रखा था। इसी प्रकार हम अपने आदरणीय माता-पिताकी उपस्थितिमें अस्पृश्यताको हटा सकते हैं। यदि इससे कुछको जबरदस्त धक्का लगे और वे प्राण छोड़ दें तो मेरे खयालसे इसमें विपत्ति कुछ भी नहीं है। इस तरहके कुछ जबरदस्त धक्के शायद जरूरी हों। पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलनेवाली इन रूढ़ियोंको आग्रहके साथ चलाते जानेमें ऐसी घटनाएँ सम्भव हैं। किन्तु इससे बड़ा नियम निसर्गका है और उस बड़े नियमका उचित पालन करते हुए मुझे और मेरे माता-पिताको यह त्याग करना चाहिए।

और अब हम हाथ-बुनाईपर आते हैं

आप प्रश्न कर सकते हैं, “हमें हाथसे काम लेनेकी क्या जरूरत है?” और कह सकते हैं कि “हाथका काम तो वे करें जो निरक्षर हैं। मैं तो साहित्य और राजनीतिके प्रबन्ध पढ़नेमें व्यस्त रह सकता हूँ।” मेरी समझमें हमें श्रमके गौरवको समझना चाहिए। यदि कोई नाई या चमार कॉलेजमें पढ़ने लगे तो उसे हजामत करने या जूते बनानेका धन्धा नहीं छोड़ना चाहिए। मेरे लेखे हजामत करनेका धन्धा भी चिकित्साके धन्धेके बराबर है।

और अन्तमें इन सब नियमोंके अनुरूप चल चुकनेपर――उसके पहले नहीं――आप आ सकते हैं

राजनीति

के क्षेत्रमें और फिर जितना चाहें उतना उससे खिलवाड़ कर सकते हैं। और निःसन्देह आप गोता नहीं खायेंगे। धर्मसे अछूती राजनीति बिलकुल निरर्थक है। यदि विद्यार्थी-वर्ग इस देशके राजनैतिक-मंचपर भीड़ लगाने लगे, मेरा खयाल है, यह जरूरी नहीं है कि उससे राष्ट्रीय विकास अवश्य होगा ही, किन्तु इसका यह अर्थ