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अहिंसा के विषयमें लाला लाजपतरायको उत्तर

गुण है। जनरल गॉर्डनके[१] एक प्रसिद्ध पुतलेमें उनके हाथमें केवल छड़ी दी गई है। यह अहिंसाकी दिशामें काफी बड़ा कदम है। किन्तु जो वीर अपनी रक्षाके लिए छड़ीकी भी सहायता लेता है वह उस हदतक वीरता खो देता है। सच्चा सिपाही तो वह है जो गोलियोंकी बौछारमें अविचलित रहकर मरना जानता है। मूरोंने उस समय इसी प्रकारका साहस दिखाया जब फ्रांसीसी तोपची उनपर दनादन गोले दागते चले जा रहे थे और वे ‘अल्लाह’ के नारे लगाते हुए तोपोंके सामने बढ़ते चले जा रहे थे। अलबत्ता यह साहस निराशासे उत्पन्न साहस था। अम्बरीषका साहस प्रेमसे उत्पन्न था। फिर भी मूरोंके साहस, मरनेकी तत्परताने तोपचियोंके हृदय जीत लिये। उन्होंने गोले दागना बन्द कर दिया और जोर-जोरसे टोपियाँ हिलाकर अपने अबतकके शत्रुओंका मित्रोंकी तरह स्वागत किया। इसी प्रकार किसी छोटे-मोटे व्यक्तिगत स्वार्थके बदले अपना सम्मान बेचनेके बजाय दक्षिण आफ्रिकी सत्याग्रही हजारोंकी तादादमें मरनेके लिए तैयार थे। यह थी भावात्मक रूपमें अहिंसा। अहिंसा कभी सम्मानका सौदा नहीं करती। कोई असहाय बालिका अहिंसाके किसी अनुयायीके संरक्षणमें जितनी सुरक्षित है उतनी उसके संरक्षण में नहीं जो शस्त्रकी शक्ति टिकने तक उसकी रक्षा करनेको तैयार है। पहली परिस्थितिमें अत्याचारीको संरक्षककी लाशपर से उस तक गुजरना होगा; दूसरी परिस्थितिमें उसका संरक्षकको काबूमें ले आना काफी है। क्योंकि वहाँ धारणा यह है कि यदि संरक्षक शारीरिक शक्तिकी हदतक पूरा संघर्ष कर चुका हो तो उसकी कर्त्तव्य-भावना तुष्ट हो जायेगी। पहली परिस्थितिमें, संरक्षकने अपनी आत्माको अत्याचारीके शरीरके मुकाबलेमें खड़ा किया है――सम्भावना तो यह है कि प्रतिद्वन्द्वको आत्मा जागेगी और हम कल्पना नहीं कर सकते कि इसके सिवाय किसी अन्य परिस्थितिमें बालिकाके सम्मान-रक्षाकी अधिक सम्भावना होगी――यदि स्वयं बालिका भी साहसका परिचय दे तो और बात है।

आज हम यदि कापुरुष हैं तो उसका कारण यह नहीं है कि हमें वार करना आता है बल्कि कारण यह है कि हम मरनेसे डरते हैं। वह व्यक्ति जैनधर्मके प्रवर्त्तक महावीर या गौतमबुद्ध अथवा वेदोंका अनुयायी नहीं है जो स्वयं तो मृत्युसे डरकर किसी वास्तविक या काल्पनिक भयके सामनेसे भाग खड़ा होता है और मनमें यह मानता है कि कोई अन्य व्यक्ति सम्बन्धित अत्याचारीका नाश करके खतरेका परिहार कर दे। वह निःसन्देह अहिंसाका अनुयायी नहीं है जो व्यापारमें धोखा देकर किसी व्यक्तिको घुला-घुलाकर मारता है, या जो हथियार उठाकर कुछ गायोंकी रक्षा करता है और कसाईको मार डालता है या जो देशके तथाकथित लाभकी आशामें शासन के कुछ अधिकारियोंकी हत्या करनेमें नहीं हिचकता। इन सारे कृत्योंकी जड़में घृणा, कायरता और भय है। गाय अथवा देशके प्रति प्रेमकी यह भावना एक धूमिल-सी चीज है और इसका मकसद अपने दम्भकी तुष्टि या अन्तर्वेदनाको सहलाना है।

 
  1. १. खातूँमके लॉर्ड गॉर्डन (१८३३-८५), अंग्रेज प्रशासक व सैनिक; सूडानके गवर्नर जनरल देखिए खण्ड ८, पृष्ठ १०४।