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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

 

मेरी विनम्र रायमें अहिंसा लौकिक और अलौकिक सभी बुराइयोंके लिए रामबाण है। इसके आचरणमें अति सम्भव ही नहीं है। अभी तो इसका आचरण हो ही नहीं रहा है। अहिंसा दूसरे सद्गुणोंके आचरणका स्थान नहीं ले लेती, बल्कि उनका आचरण अहिंसाके प्रारम्भिक रूपके पालनके लिए भी आवश्यक कर्त्तव्य हो जाता है महावीर और बुद्ध और इसी प्रकार टॉल्स्टॉय सिपाही थे। अलबत्ता उन्होंने अपने पेशेको अधिक गहराई और वास्तविकताके साथ देखा और सत्य, सुख और सम्मानसे पूर्ण पवित्र जीवनके रहस्यको समझा। हम भी इन गुरुजनोंके पथपर चलें और अपने इस देशको फिर एक बार देव-भूमि बना दें।

मो० क० गांधी

[अंग्रेजीसे]
मॉडर्न रिव्यू, अक्तूबर १९९६
 

२१७. आधुनिक शिक्षा

हमें आज सभी लोगोंके मुँहसे ‘शिक्षा’ शब्द सुनाई पड़ता है। सभी स्कूल-सरकारी और गैर-सरकारी――छात्रोंसे भरे हुए हैं। कॉलेजोंमें जगह नहीं मिलती। गुजरात कॉलेज से कितने ही उम्मेदवारोंको निराश लौट जाना पड़ा। शिक्षाके सम्बन्धमें इतना मोह होनेपर भी यह प्रश्न शायद ही किसीके मनमें आता हो कि शिक्षाका अर्थ क्या है और हमें अबतक जो शिक्षा मिलती रही है उससे लाभ हुआ है या हानि अथवा परिश्रमके अनुरूप लाभ हुआ है या नहीं। जैसे शिक्षाके अर्थके सम्बन्धमें कम विचार किया गया दिखाई देता है, वैसे ही उसके उद्देश्यके सम्बन्धमें कहा जा सकता है। मुख्य उद्देश्य तो यही दिखाई देता है कि हम शिक्षा प्राप्त करके किसी नौकरीके योग्य हो जायें। विभिन्न धन्धा करनेवाली जातियोंके लोग शिक्षा प्राप्त करनेके बाद अपना धन्धा छोड़कर नौकरी ढूंढ़नेमें लग जाते हैं। और नौकरी मिल जाती है तो वे अपनेको कुछ ऊँचा चढ़ा हुआ मानते हैं। हम अपने स्कूलोंमें राज, लुहार, बढ़ई, दर्जी, मोची आदि जातियोंके बालकोंको पढ़ते देखते हैं। किन्तु वे पढ़कर अपने पुश्तैनी धंधेको उन्नत करनेके बजाय उसे नीचा धन्धा मानकर छोड़ देते हैं और दफ्तरमें क्लक करनेमें अपनी प्रतिष्ठा मानते हैं। माता-पिता भी इसी तरह सोचते हैं। हम लोग इस प्रकार जाति-भ्रष्ट और कर्त्तव्य-भ्रष्ट होकर गुलाम बनते जा रहे हैं। अपनी भारत-यात्रामें सभी ओर मैंने यही स्थिति देखी है और इससे मेरा हृदय बहुत बार रो उठा है।

शिक्षा हमारा साध्य नहीं है, बल्कि साधन है। जिस शिक्षासे हम चरित्रवान् बन सकें, वही सच्ची शिक्षा मानी जा सकती है। कोई भी यह नहीं कह सकता कि स्कूलोंकी शिक्षासे चारित्र्य प्राप्त किया जा सकता है। स्कूलोंमें चरित्रको बिगाड़ लेनेके अनेक उदाहरण हमें मिल जायेंगे। एक निष्पक्ष अंग्रेज लेखकने कहा है कि जबतक भारतके स्कूलों और घरोंमें सामंजस्य न होगा, तबतक छात्र दोनों दीनोंसे भ्रष्ट ही होते रहेंगे।