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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

घर है और न जहाँ मैं रहता हूँ वहाँ ऐसे दरवाजे हैं जो ताला लगाकर बन्द किये जाते हों। जंजीरें चाहे सोनेकी हों या लोहेकी, मेरे लिए तो वे एक-सी हैं, क्योंकि वे हैं तो आखिर जंजीरें ही । आपने जैसा समारोह किया है, वह मेरे स्वभावसे बिलकुल मेल नहीं खाता, और इसमें जो प्रलोभन निहित है, उससे मुझ-जैसा व्यक्ति, जिसके मनमें केवल मातृभूमिको सेवाका ही खयाल है, चाहे कोई उनकी प्रशंसा करे या निन्दा और जो किसी भी प्रकारके पुरस्कारकी इच्छा नहीं करता, बिगड़ेगा ही।

मेरे कार्यके पीछे केवल कर्त्तव्यकी भावना ही होती है। मैं उसका पालन अभी- तक तो रुपयेमें एक आना-भर ही कर पाया हूँ और इतने वर्ष बाद इसी खयालसे स्वदेश लौटा हूँ कि अपने जीवनका शेष काल बाकी पन्द्रह आने-भरमें से जितना कर सकूँ उतना करनेका यथाशक्ति प्रयत्न करूँ। में केवल उस कर्त्तव्यका पालन कर सकूँ जो मेरे सामने उपस्थित है. - इससे अधिक मैं कोई आशा नहीं करता, कोई चाह नहीं रखता। मैं आप सबसे प्रार्थना करता हूँ कि मैं जो भी सेवा कर सकूं, आप उसे स्वीकार करें और मुझे ऐसी मूल्यवान् भेंट न दें, जिनका में कोई उपयोग नहीं कर और जिनका इससे अधिक अच्छा उपयोग किया जा सकता है। मैं सचाईके साथ विश्वास करता हूँ कि आप मेरी बातका अर्थ गलत न समझेंगे। मैं तो केवल अपने हृदयके भाव ही व्यक्त कर रहा हूँ |

[ अंग्रेजीसे ]

बॉम्बे क्रॉनिकल, १५-१-१९१५

४. पत्र : मगनलाल गांधीको

पौष बदी १०, १९७१, सोमवार [ जनवरी ११, १९१५]

चि० मगनलाल, १

तुम्हारा पत्र मुझे मिल गया है। बम्बई पहुँचनेपर जैसे ही किनारा दिखा, मेरी आँखोंमें खुशीके आँसू आ गये। अभीतक खुशीसे पागल हूँ; फिर भी बम्बई तो अच्छा नहीं लगता। लगता है जैसे लन्दनकी जूठन हो । मुझे उसमें लन्दनके समस्त दोष दिखाई देते हैं; किन्तु उसकी सुविधाएँ नहीं। यह भी भारतकी खूबी है। ऐसा लगता है कि सुविधाओंके कारण हम भुलावेमें न पड़ जायें इसलिए भारत-माताने हमें लन्दनकी बुरा- इयाँ-भर दिखानेका निश्चय किया है। आदर-सत्कारसे उकता गया हूँ। एक क्षणके लिए भी शान्ति नहीं मिलती। लोगोंका ताँता लगा रहता है। इससे मेरा या उनका, किसीका उपकार नहीं होगा।

१. मूलमें पौष वदी ११ है, यह भूल प्रतीत होती है, क्योंकि उस दिन मंगलवार था ।

२. खुशालचन्द गांधीके पुत्र; दक्षिण आफ्रिकामें गांधीजीके साथ १० वर्ष रहे । अगस्त १९१४ में फीनिक्ससे २५ छात्रों के साथ भारत आये और शांतिनिकेतनमें ठहरे ।